Friday 24 June 2011

माओवाद से आगे जाते आंदोलन......


अगर अल्ट्रा लेफ्ट यानी नक्सलवाद से लेकर माओवाद हिंसा की जगह अहिंसा की शक्ल में आये तो उसका चेहरा क्या होगा। जाहिर है हिंसा का मतलब है व्यवस्था परिवर्तन के लिये पहले सत्ता परिवर्तन ही है। जिसमें राज्य से दो-दो हाथ करने की स्थिति आती ही है। और नक्सलवाद से लेकर माओवाद का चेहरा चाहे किसान-आदिवासी के सवाल को लेकर खड़ा हो या नयी परिस्थितियों में जमीन से लेकर विकास की बाजारवादी सोच को मुद्दा बनाकर संघर्ष की स्थिति पैदा करने वाला हो, लेकिन शुऱुआत सत्ता परिवर्तन से ही होती है। जबकि अहिंसा का मतलब है सिर्फ व्यवस्था परिवर्तन।

यानी यहां चल रही सत्ता को सिर्फ इतनी ही चेतावनी दी जाती है कि जो व्यवस्था उसने अपनायी हुई है वह सही नहीं है। और संघर्ष का यह चेहरा व्यवस्था परिवर्तन उसी घेरे में चाहता है, जिसमें सत्ता चल रही है। लेकिन,इस व्यवस्था परिवर्तन के संघर्ष को क्या अल्ट्रा लेफ्ट यानी नक्सलवाद से माओवाद की किसी श्रेणी में अगर नही रखा जा सकता, तो इसका किस रूप में मान्यता दी जाये। असल में अन्ना हजारे और बाबा रामदेव का संघर्ष, मुद्दों को लेकर सत्ता को चेताने वाले संघर्षों में एक नया सवाल है।

यहां यह कहा जा सकता है कि भ्रष्‍टाचार और कालेधन के मुद्दे, संसदीय राजनीति ने भी उठाये हैं। और अन्ना हजारे या बाबा रामदेव के सवाल चुकी हुई संसदीय राजनीति पर महज एक सवालिया निशान भर है। लेकिन, संसदीय राजनीति ने हमेशा चुनावी राजनीति को महत्ता दी। संसद को हर मुद्दे के समाधान का रास्ता करार दिया। जवाहरलाल नेहरु पर लोहिया ने जब भ्रष्‍टाचार के आरोप जड़े, तो गैर कांग्रेसवाद से आगे संघर्ष की लकीर ना खिंच सकी। इंदिरा गांधी की सत्ता के भ्रष्ट तौर-तरीकों को लेकर जब जेपी ने आंदोलन की शुरुआत की, तो भी कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ विरोधी राजनीतिक दलों का एक मंच जनता पार्टी के तौर पर निकला। वीपी सिंह ने भी जब बोफोर्स घोटाले के घेरे में राजीव गांधी की सत्ता को घेरा, तो भी संसदीय राजनीति के घेरे में ही सत्ता परिवर्तन का ही चेहरा समूचे संघर्ष में उभरा। लेकिन, अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने चाहे संसदीय राजनीति में उठ चुके सवालों को मुद्दों में बदला, लेकिन पहली बार उसका रास्ता भी संसदीय राजनीति से इतर खोजने की सोच भी पैदा की।

सत्ताधारी दल के तार भ्रष्टाचार से जुड़ने के बाद कालेधन के जरिये संसदीय राजनीति का खेल कैसे खेला जाता है,यह सवाल भी उठा। और पहली बार तमाम राजनीतिक दलों के सामने यह बड़ा सवाल गूंजा कि अगर संसदीय चुनावी राजनीति का चेहरा ही पूंजी पर टिका है और पूंजी का मतलब भ्रष्टाचार या कालेधन को प्रश्रय देना है, तो फिर मुद्दा चाहे पुराना हो, लेकिन उसके सवाल नये हैं और रास्ता भी नया खोजना जरूरी है। असल में यह समझ आंदोलन के बीच में सत्ताधारी दल से लेकर तमाम राजनीतिक दलों की आपसी एकजुटता से भी निकली और आंदोलन से टकराव ने भी इन सवालों को जन्म दिया। खासकर सिविल सोसायटी ने जन- लोकपाल कानून के जरिये जिस तरह कानून पर टिके संसदीय लोकतंत्र पर ही सवालिया निशान लगाया।

लोकतंत्र का नारा लगाते संसदीय दलों को भी समझ नही आया कि जो काम संसद को करना है अगर उसका मसौदा संसद के बाहर तय होने लगे, उस पर बहस बिना राजनीतिक दलों की शिरकत के होने लगे, अगर सडक पर संसद के तौर-तरीको को लेकर आम आदमी संघर्ष की शक्ल में अपनी सहमति सिविल सोसायटी को लेकर देने लगे, तो फिर चुनावी लोकतंत्र पर देश ठहाके नहीं लगायेगा तो और क्या करेगा। और अगर ऐसा होगा तो फिर आंदोलन की बोली भी व्यवस्था परिवर्तन की ऐसी लकीर खिंचने वाली होगी जिसमें यह तयकर पाना वाकई मुश्किल होगा कि संघर्ष सिर्फ वयवस्था के तौर-तरीको को बदलने वाला है या फिर सत्ता की नुमाइन्दगी करने के लिये बैचैन राजनीतिक दलों के खिलाफ संघर्ष की मुनादी हो रही है। यानी जो नक्सलवाद से लेकर माओवाद के नारे नक्सलबाडी से लेकर तेलागांना और हाल के दिनों में बस्तर से लेकर नंदीग्राम और लालगढ़ में सुनायी दिये वही अहिंसा की आवाज की शक्ल में दिल्ली के जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान और आखिर में राजघाट तक भी सुनायी पड़े। क्योंकि दिल्ली के इन लोकतांत्रिक मंचो को संसदीय लोकतंत्र ने ही खुद को लोकतांत्रिक बताने-ठहराने के लिये बनाया है, तो यहां की आवाज में विरोध के स्वर विद्रोह के नहीं लगते है। और इससे पहले इसी का जश्न संसदीय सत्ता मनाती आयी है और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दंभ भी भरती रही है।

लेकिन पहली बार अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने उन्हीं प्रतीकों को जड़ से पकड़ा। कहा यह भी जा सकता है कि खेल - खेल में संसदीय लोकतंत्र के यह प्रतीक पकड़ में आ गये। रामदेव का मतलब चूंकि रामलीला मैदान रहा और रामलीला मैदान जेपी से लेकर वीपी तक के संघर्ष की मुनादी स्थल रहा है। संघ परिवार की दस्तक खुले तौर पर नजर आने के बाद संसदीय सत्ता रामलीला मैदान के जरिये संघ परिवार के भगवापन को रामदेव के बाबापन से जोड़कर अपने उपर उठने वाली अंगुली को सियासी दांव तले दबा सकती है। चूंकि बाबा रामदेव की रामलीला का जुड़ाव भी आस्था और भगवा रहस्य में ज्यादा खोया रहा, इसलिये इस संघर्ष को राजनीतिक तीर बनाने में सफलता कितनी किस रूप में मिलती यह तो दूर की गोटी है।

लेकिन रामलीला मैदान में संसदीय राजनीतिक दलों की अलोकतांत्रिक भूमिका को लेकर जो सवाल बाबा रामदेव ने उठाये और जिस तरह व्यवस्था परिवर्तन की बात कहते हुये सत्ता के तौर-तरीकों पर परोक्ष-अपरोक्ष तौर पर निशाना साधा। कैबिनेट, रामदेव मंत्रियों से रामदेव की हुई बातचीत को भी कितना जनविरोधी करार करने के लिये दबाव बना रही है, इसे सार्वजनिक मंच पर जिस तेवर से कहा, उसमें यह सवाल कोई भी पूछ सकता है कि अगर यह तेवर कोई माओवादी दिखाता तो वह राष्ट्रविरोधी करार दिया जा सकता था। वही अन्ना हजारे की जंतर-मंतर की सभा हो या राजघाट की, दोनों जगहों पर ना सिर्फ मंच से बल्कि सार्वजनिक तौर अलग-अलग सामाजिक संगठनो से लेकर निजी पहल करते आम शहरी मध्यम वर्ग ने प्ले-कार्ड से लेकर नारों की शक्ल में जो-जो कहा, अगर उस पर गौर करें तो नंदीग्राम से लेकर बस्तर तक में जो आवाज सत्ता के खिलाफ जिन शब्दों को लेकर उठती है, उससे कहीं ज्यादा तल्खी इनकी आवाजों में थी। शब्दों में थी। खासकर विकास का जो खांचा 1991 के बाद से देश में आर्थिक सुधार के नाम पर अपनाया जा रहा है, उसका चेहरा ही भ्रष्ट है तो फिर भ्रष्टाचार पर नकेल कैसे कसी जा सकती है।

यह सवाल भी सिविल सोसायटी ने उठाया। और इस दौर में माओवाद के राजनीतिक घोषणा पत्र में जब समूची विकास प्रक्रिया को ही चंद हथेलियों में पूंजी समेटने वाला करार दिया है, उसी भाषा में भ्रष्टाचार पर फंदा भी अन्ना हजारे ने कसे। इतना ही नही, किसानों,आदिवासियों के जिन मुद्दों को लेकर नंदीग्राम में आग सुलगी और वामपंथियों को कटघरे में खड़ा किया गया उसी तरह सिविल-सोसायटी ने भी जनलोकपाल की बैठकों में सरकार पर यह कहकर नकेल कसी कि इसके दायरे में किसी को भी बख्शने का मतलब होगा भ्रष्टाचार करने का लाईसेंस देना। वामपंथियों ने सत्ता पर रहते हुये ममता बनर्जी पर यही सवाल उठाये थे कि जब जनता ने उन्हें चुना है तो वह जनता के खिलाफ कैसे जा सकते हैं और फैसला भी जनता को ही करना होगा।

जाहिर है बंगाल में वामपंथियों के विकल्प के लिये ममता उसी रास्ते पर खड़ी थी जिसे वामपंथियो ने चुना था। संसदीय चुनाव का रास्ता। और बंगाल में तो कानून के लिये राष्ट्रविरोधी माओवादी भी चुनाव के जरिये परिवर्तन के पक्ष में थे। लेकिन दिल्ली में सिविल सोसायटी ने तो अल्ट्रा लेफ्ट या कहे माओवादियों से भी आगे के सवाल सरकार के साथ एक ही टेबल पर बैठ कर उठा दिये। असल में पहली बार सबसे बड़ा सवाल देश के लिये यही खड़ा हो रहा है कि क्या संसदीय राजनीति अपनी भूमिका निभा चुका है। क्या संसदीय राजनीति के सरोकार आम आदमी से पूरी तरह खत्म हो चुके है। क्या समूची चुनावी प्रक्रिया को देश का शहरी वर्ग धोखा मान चुका है। यह सारे सवाल इसलिये जरूरी हैं क्योंकि सिविल सोसायटी के उठाये सवाल इससे पहले नक्सली या माओवादी भी नहीं कह पाये।

उन्होंने व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कर सत्ता परिवर्तन की बात कही। लेकिन अन्ना हजारे के सवाल तो सीधे प्रधानमंत्री और देश के मुख्य न्यायाधीश को भी यह कहते हुये कटघरे में खडा कर रहे हैं कि अगर यह जन लोकपाल के दायरे में नहीं आये तो भ्रष्टाचार करने के इन्हे ही मंच बना लिया जायेगा। यानी सरकार को जिस मंत्रालय में बड़ा घोटाला करना है वह मंत्रालय प्रधानमंत्री अपने पास रखेंगे। इसी तरह चीफ जस्टिस आफ इंडिया के फैसलों के जरिये सरकार अपनी सहूलियत के अनुसार कानून बनाने या कानून बिगाड़ने से नहीं हिचकेगी। क्या यह बात कहकर माओवादी इससे बच सकता है कि सरकार उसे राष्ट्रविरोधी ना करार दे।

जाहिर है माओवाद का मतलब हिंसा है। और अन्ना हजारे राजघाट पर बैठकर गांधी और भगत सिंह का ऐसा मिश्रण बना रहे हैं, जिसके घेरे में संसदीय राजनीति के शुद्धीकरण का सवाल उठेगा ही। और कानूनी तौर पर सरकार के सामने इन्हें रोकने के लिये आपातकाल सरीखा वातावरण बनाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता बचता नहीं है। जिसे सरकार ला नहीं सकती है। लेकिन, इन्हें रोक भी नहीं सकती है। तो क्या यह माना जा सकता है कि जिस मध्यवर्ग को माओवादी या अल्ट्रा-लेफ्ट शहरी बुर्जुआ कहकर खारिज करता रहा है, नयी परिस्थितियों में यही शहरी मध्यवर्ग अब सत्ता में अपने हक को उसी तरह खोज रहा है जैसे किसान, मजदूर, आदिवासियों के हक की बात नक्सलवादी से लेकर माओवादी करते रहे हैं। और किसी अल्ट्रा-लेफ्ट संगठन के महासचिव की जगह गांधी टोपी पहले अन्ना हजारे आंदोलन के एक नये प्रतीक बन गये हैं। जिससे टकराया कैसे जाये या संसदीय सत्ता किस तरह इन्हें खारिज करें यह रास्ता फिलहाल ना तो सरकार के पास है ना ही संसदीय राजनीति के पास।

लेकिन, 1948 के किसान आंदोलन से लेकर नक्सलबाड़ी होते हुये तेलागंना, बस्तर और नंदीग्राम में जो लकीर खिंची उसी सोच को राष्ट्रीय पटल पर सामूहिकता का बोध लिये सामाजिक आंदोलन की नयी जमीन पहली बार बदलने का संकेत भी दे रही है और बदलते संकेत में संसदीय सत्ता को भी चेता रही है कि कोई रास्ता उसने नहीं निकाला गया, तो देश में आंदोलन सत्ता की धारा बदल भी सकते है। यह संकेत अभी सांकेतिक हैं, लेकिन कल बदलाव की लकीर भी खिंच सकती है और इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।


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