Friday 8 April 2011

अन्ना-मनमोहन का 15 मिनट का संवाद !




सिर्फ पन्द्रह मिनट की बातचीत ने ही अन्ना हजारे और प्रधानमंत्री के बीच लकीर खींच दी। मामला भ्रष्टाचार पर नकेल कसने का था। और उस पर लोकपाल विधेयक के उस मसौदे को तैयार करने का था, जिससे आम लोगों का संस्थाओं पर से उठता भरोसा दोबारा जागे। 15 मिनट की बाचतीच कुछ इस अंदाज में हुई-
सरकार भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाना चाहती है और इसमें आपकी मदद चाहिये। हम तो तैयार हैं। हमने यही लड़ाई लड़ी है। लोकपाल विधेयक के जरीये यह काम हो सकता है, आप हमें बतायें उसमें कैसे आगे बढ़ें, जिससे सहमति बने और विधेयक अटके भी नहीं। प्रधानमंत्री जी जब तक इसके दायरे में हर संस्था नहीं आयेगी और जब तक कार्रवाई करने के बाद परिणाम जल्द से जल्द सामने लाने की सोच नहीं होगी, तब तक लोकपाल का कोई मतलब नहीं है। क्या आप चाहते है कि जो स्वायत्त संस्थाये हैं, उन्हे भी इसके दायरे में ले आयें। जी , बहुत जरुरी है। जैसे सीबीआई एक स्वायत्त जांच एजेंसी है लेकिन उसपर किसी का भरोसा नहीं है और सत्ता अपनी अंगुली पर उसे नचाती है और वह ना नाचे तो फिर सीबीआई के बाबुओं की भी खैर नहीं। चलिये ठीक है, लेकिन इसपर सरकार के भीतर भी तो सहमति बननी चाहिये। और सरकार के आठ मंत्री बकायदा भ्रष्टाचार को लेकर मसौदा तैयार कर रहे हैं । तो उन्हे प्रस्ताव तैयार करने दिजिये और आप अपने सुझाव दे दीजिये। नही, प्रस्ताव तैयार करने में सरकार के बाहर जनता की भागेदारी भी होनी चाहिये। तभी पता चलेगा कि सरकार से बाहर लोग क्या सोचते है और भ्रष्टाचार की सूरत में सत्ता में बैठे लोगो के खिलाफ कैसे कार्रवाई हो सकती है। लेकिन मंत्री भी तो जनता के ही नुमाइन्दे हैं । और आप अलग से जनता के नुमाइन्दों को कहां से लायेंगे। नुमाइन्दी का मतलब सिर्फ संसदीय चुनाव नहीं होता । शांतिभूषण जी कानून मंत्री रह चुके हैं और उन्होने सुप्रीम कोर्ट के भ्रष्टाचार तक पर अंगुली उठायी। जनता भी सोचती थी कि न्यायपालिका के भ्रष्टाचार पर किस दिन कौन कहेगा। सरकार के तो किसी मंत्री ने कुछ नहीं कहा। लेकिन शांतिभूषण जी ने ताल ठोंककर कहा। तो इस तरह जो लोग अलग अलग क्षेत्रों से जुड़े हुये हैं और लोगों की भावना के करीब हैं, उन्हे लोकपाल विधेयक के मसौदे को तैयार करने में जोड़ा जायेगा। और अपन का तो मानना है कि प्रस्ताव तैयार में आधे सरकार के मंत्री हो और आधे असल जनता के नुमाइन्दे, जो उन सवालो को उठा रहे हैं, जिस पर से सत्ता ने आंखे मूंदी हुई है। यह कैसे संभव है। जब देश के आठ वरिष्ठ मंत्री भ्रष्टाचार को रोकने के लिये बनी कमेटी में काम कर रहे हैं तो उनके बराबर कैसे किसी को भी अधिकार दिये जा सकते हैं। प्रधानमंत्री जी आपको याद होगा जब जवाहरलाल नेहरु मंत्रिमंडल बना रहे थे और तमाम कमेटियां बनायी जा रही थी, तब महात्मा गांधी ने नेहरु से एक ही बात कही थी कि आजादी समूचे देश को मिली है सिर्फ कांग्रेस को नहीं। और यह बात लोकपाल विधेयक को लेकर भी समझनी चाहिये क्योंकि भ्रष्टाचार का मामला समूचे देश का मुद्दा है , यह सिर्फ सरकार का विषय नहीं है। लेकिन सरकार और मंत्री की जवाबदेही तो जनता के प्रति ही होती है। फिर आप गृहमंत्री, वित्तमंत्री, कानून मंत्री,कृषि मंत्री , मानव संसाधन मंत्री ,रेल मंत्री,रक्षा मंत्री से लेकर पीएमओ के मंत्री तक पर भरोसा क्या नहीं कर सकते।

हम इसकी व्यवस्था कर देते है कि चार मंत्री बकायदा आप लोगो के विचारो से लगातार अवगत होते रहे। और लोकपाल का स्वरुप भी उसी अनुकूल हो जैसा आप चाहते हैं। प्रधानमंत्री जी यह कैसे संभव है। देश का समूचा कच्चा-चिट्ठा तो आपको भी सामने है। आप ही जिन मंत्रियो के जरीये लोकपाल या भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की बात कह रहे है, जरा उसकी तासिर तो देखिये। गृह मंत्री पी चिदबंरम का नाम विकिलीक्स खुलासे में आया कि कैसे शिवगंगा में चुनाव के दैराव उनके बेटे कार्त्ती ने नोट के बदले वोट का खेल किया। कारपोरेट घराने वेदांता के साथ उनके संबंध बार बार उछले हैं और वेदांता को इसका लाभ खनन के क्षेत्र में कितना मिला है, यह भी खुली किताब है। स्पेक्ट्रम मामले में अनिल अंबानी की पेशी सीबीआई में हो रही है और उनसे भी कैसे रिश्ते चिदंबरम के हैं, यह मुंबई में आप किसी से भी जान सकते हैं। प्रणव मुखर्जी तो देश के वित्त मंत्री रहते हुये अंबानी बंधुओं के झगड़े सुलझाने से लेकर उन्हें देश के विकास से जोड़ने के लिये खुल्लम-खुल्ला यह कहने से नही कतराते कि वह अनिल-मुकेश अंबानी को बचपन से जानते हैं।

अन्ना हजारे जी मैं खुद क्रोनी कैपटलिज्म के खिलाफ हूं और इसका जिक्र मैंने 2007 में फिक्की के एक समारोह में किया था। इसके संकेत आपको पिछले मंत्रिमंडल विस्तार में दिखायी दिया होगा। जी, सवाल संकेत का नहीं है। वक्त कार्रवाई का है। आपको तो जन लोकपाल में ऐसी व्यवस्था करनी है कि लोकपाल के खिलाफ भी शिकायत आये तो उसका निस्ताराण भी एक माह के भीतर हो जाये। यह सिर्फ सरकार के आसरे कैसे संभव है। मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल को आपने ही टेलीकाम का प्रभार ए राजा के फंसने के बाद दिया। जाहिर है वह काबिल हैं तभी आपने अतिरिक्त प्रभार दिया। लेकिन हुआ क्या, सरकार का दामन बचाने के लिये उन्होने 2 जी स्पेक्ट्रम में कोई घोटाला भी हुआ है, इसे ही खारिज कर दिया और तर्को के सहारे कैग की रिपोर्ट को भी बेबुनियाद करार दिया। फिर कृषिमंत्री शरद पवार जी को आपने भ्रष्टाचार की रोकथाम वाली कमेटी में रखा है। अब आप ही बताईये हम उनसे क्या बात करेंगे। क्या यह कहेंगे कि लोकपाल में इसकी व्यवस्था होनी चाहिये किसी कैबिनेट मंत्री पर अवैध तरीके से जमीन हथियाने का आरोप लगता है तो इस पर फैसला हर हाल में महीने भर के भीतर आ जाना चाहिये। साबित होने पर देश को हुये घाटे की पूर्ति के साथ साथ कडी सजा की व्यवस्था होनी चाहिये।

कोई मंत्री अगर मुनाफाखोरो के हाथ आम आदमी की न्यूनतम जरुरतों को बेच देता है और बिचौलिया या जमाखोर उससे लाभ उठाते हैं और यह आरोप साबित हो जाये तो उस मंत्री के चुनाव लड़ने पर रोक लग जानी चाहिये। हम कौन सी बात पवार जी से कहेंगे, आप ही बताइये क्योंकि आप क्रोनी कैपटलिज्म के खिलाफ हैं और कांग्रेस खुले तौर पर कहती है कि शरद पवार कारपोरेट घरानो को साथ लेकर सियासत करते हैं। जिसका लाभ कारपोरेट को बीते पांच बरस में इतना हुआ है जितना आजादी के बाद कभी नहीं हुआ। सरकार और मंत्रियो के साथ खड़े कारपोरेट घरानो के टर्न ओवर में तीन सौ से लेकर तीन हजार फिसदी तक की बढोतरी अगर इस दौर में हुई और हर कारपोरेट ने अपने पैर देश के बाहर फैलाये तो उसके पीछे की अर्थव्यवस्था की जांच कौन करेगा। और लोकपाल बिल में यह सब कैसे आयेगा। फिर काग्रेस ने ही मंहगाई की जड में जब कृषि मंत्री को बताया और इसी दौर में जब कोई कड़ा कानून नहीं बनाया गया तब कैसे कानून मंत्री वीरप्पा मोईली अब लोकपाल को लेकर सक्रिय हो जायेंगे। प्रधानमंत्री जी यह सारे सवाल इस दौर में आपकी ही सरकार के मद्देनजर उठे हैं। इसलिये हमारे सामने सवाल लोकपाल बिधेयक को भी जन लोकपाल विधेयक में बदलने का है। इसीलिये हम जनता की भागीदारी का सवाल उठा रहे हैं।

अन्ना जी आपके कहे हर वाक्य की अहमियत मैं समझता हूं । लेकिन सरकार के कामकाज का अपना तरीका होता है और उस पर बिना सहमति बनाये कोई कार्य आगे बढ़ नहीं सकता। फिर सरकार सिर्फ कांग्रेस की नहीं है आपको समझना यह भी होगा। यह लोकतांत्रिक ढांचा है। मै आपको एक बात याद दिलाना चाहता हूं प्रधानमंत्री जी कि जब देश का संविधान तैयार हो रहा था तो उसका आखिरी ड्राफ्ट लेकर राजेन्द्र प्रसाद महात्मा गांधी के पास गये थे। तब गांधी जी ने एक ही सवाल राजेन्द्र बाबू से पूछा था। इस संविधान में गरीबो और पिछड़ों के लिये क्या है। और राजेन्द्र प्रसाद कोई जवाब दे नहीं पाये थे। मगर उसके बाद ही पिछड़ों को आरक्षण और गरीबो को राहत देने की बात संविधान में जुड़ी। अब लोकपाल और लोकायुक्त संस्था की स्थापना में आधी भागेदारी जनता की नहीं होगी तो फिर देश का मतलब तो वही सत्ता हो गयी जहां से भ्रष्टाचार की लौ फूट रही है। इसलिये मैं जनता के बीच इस मुद्दे को लेकर जाउंगा। अन्ना हजारे जी आप जैसा ठीक समझे आप बुजुर्ग हैं और हमें आपका मार्ग दर्शन चाहिये। मैं भी भ्रष्टाचार के खिलाफ हूं और चाहता हूं कि आप सरकार को सहयोग दें।

और इस 15 मिनट की बातचीत के बाद अन्ना हजारे खामोश हो गये और वही पीएमओ की ड्योडी से उतरते उतरते उन्होंने मान लिया कि जन लोकपाल का रास्ता मनमोहन सिंह के रास्ते से नहीं निकलेगा बल्कि जनता के बीच से ही रास्ता निकालना होगा। तय किया कि इसलिये जिन्दगी के आखिरी उपवास पर आमरण बैठना ही गांधी का रास्ता अपना कर देश को रास्ते पर लाना होगा। और सत्ता को सीख देगी होगी।-पुण्य प्रसून वाजपेयी

Saturday 2 April 2011

गम और भी हैं जमाने में क्रिकेट के सिवा


दरणीय प्रधानमंत्रीजी
सादर प्रणाम
इधर के दिनों में झंझावतों में लगातार घिरे रहने के बाद कल मोहाली स्टेडियम में आपको देखा। खुशमिजाजी के साथ घंटों बैठे हुए। पाकिस्तान से जीत हासिल होने के पहले तालियां बजाते हुए। सोनियाजी को भी देखा। बच्चों की तरह खुशी से चहकते-दमकते हुए। राहुलजी को देखा, जीत के जोश से उभरे जज्बे का भाव। कई-कई मंत्रियों को देखा, विपक्षी खेमे के नेताओं को भी। आमिर खान, प्रीटी जिंटा, सुनील शेट्टी जैसे बॉलीवुड कलाकारों को भी। अच्छा लग रहा था। सच कह रहा हूं। पूरा देश एक छत के नीचे। स्टेडियम में 25 हजार की भीड़ के साथ इतनी देर तक देश के आलाअलम लोग शायद ही कभी इतिहास में बैठे हों। कहीं नहीं पढ़ा-सुना। किसे धन्यवाद दूं, समझ में नहीं आ रहा। क्रिकेट खेल के अविष्कारकों को, जिनकी वजह से यह दिन आया? भारतीय टीम के खिलाड़ियों को, जिन्होंने आप सबको वहां तक बुला लिया? या नये बाजार को, जिसने क्रिकेट को बुलंदियों तक पहुंचाकर देश में राष्ट्रीयता की भावना की व्याख्या नये सिरे से करना शुरू किया है?
मेरी उतनी समझ नहीं इसलिए राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता या क्रिकेट से कूटनीति वगैरह की बातें ज्यादा पल्ले नहीं पड़ती, लेकिन पता नहीं क्यों, टीवी पर आप सबों को देखते हुए बार-बार कुछ चीजें मन को कुरेदती रहीं। इससे आप राष्ट्र के प्रति मेरी निष्ठा या राष्ट्रीयता के प्रति मेरे सम्मान में कोई कमी नहीं समझिएगा। युद्ध की स्थिति और क्रिकेट के खेल, इन दोनों समय में ही राष्ट्र का एकीकरण होता है, राष्ट्रीयता की भावना जगती है, इसे मैं भी जानने-समझने-मानने लगा हूं। वरना, इस देश में कितने देश बन रहे हैं, हर कोई उपराष्ट्रीयता के छलावे के साथ अपनी ब्रांडिंग में लगा हुआ है, इससे मेरे जैसे लोग अवगत हैं। मेरी समझदारी पर तरस जरूर खाइएगा लेकिन राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता के संदर्भ में मेरी निष्ठा पर संदेह न कीजिएगा, प्लीज!
इसे सनकमिजाजी या पागलपंथी ही कहिए सर कि टीवी पर क्रिकेट का रोमांच परवान चढ़ रहा था और मेरे आंखों के सामने उस वक्त दो-ढाई साल पहले बिहार का एक दृश्य उभर रहा था। वही 2008 के कोसी के कोप का दृश्य, जब 25 लाख से अधिक की आबादी हाहाकार मचा रही थी। कोसी के तांडव से लोग मर रहे थे, तब केंद्र से आप लोगों को पहुंचने में चार-पांच दिनों का समय लग गया था। यह तय करने में कि यह राष्ट्रीय मामला है या नहीं, 100 घंटे से अधिक का समय लग गया था। याद है न सर! कोसी के इलाके अभी-अभी चार-पांच रातें गुजारकर लौटा हूं, जहां विकास के नाम पर महासेतु बनाकर फिर विनाश की बुनियाद तैयार कर रहे हैं आप दिल्लीवाले। तो शायद कोसी यात्रा का असर है कि क्रिकेट के समय में भी उसी की खुमारी छायी हुई थी। तभी तो आप और सोनियाजी वगैरह-वगैरह जब-जब दिख रहे थे, तब-तब कोसी के कोप वाले ढाई साल पहले के दृश्य सामने आ-जा रहे थे और फिर आपलोग भी याद आ रह थे।
यह बेवकूफी है सर, मुझे पता है लेकिन क्या करूं? राहुलजी को किसी बच्चे की तरह चहकते हुए देखकर अच्छा लगा। उन्हें कितना मिस कर रहा था क्रिकेट के समय, कह नहीं सकता। वे ही तो इकलौते दिल्लीवाले हैं, जो आदिवासियों को सखा-भाई-बंधु वगैरह-वगैरह बताते हैं। गांव में जाकर रात गुजारते हैं। झारखंड में पिछले दिनों हुए राष्ट्रीय खेल का आयोजन भी कल टीवी पर क्रिकेट देखते हुए बार-बार याद आने लगा। लगभग सात हजार खिलाड़ी देश के कोने-कोने से झारखंड में पहुंचे थे। वैसे-वैसे खेलों के खिलाड़ी, जो खेल सरकार के ही रहमोकरम पर जिंदा हैं। क्रिकेट के खिलाड़ियों से कोई कम जोश, जज्बा या उत्साह उनमें नहीं था सर, सच कह रहा हूं, हर दिन खेल में मौजूद था मैं। राष्ट्रीय खेल था सर, 34वां राष्ट्रीय खेल लेकिन आपलोगों में से कोई भी नहीं आया उसमें। न उदघाटन करने, न समापन करने। आप प्रधानमंत्री हैं, आपकी व्यस्तता का अंदाजा सबको है। राष्ट्रपति के आने के पेंच का भी अंदाजा हम जैसे लोगों को है। उपराष्ट्रपति भी नहीं आ सके यहां। और तो और, क्या कहूं सर, आपके खेल मंत्री भी नहीं आये थे यहां। आपके खेल मंत्री वही माकन साहब हैं न सर, जो कल तक इसी झारखंड में कांग्रेस के प्रभारी हुआ करते थे और गाहे-बगाहे यहां पहुंचकर मीडिया वालों के सामने झारखंड-झारखंड की रट किसी बच्चे की तरह लगाते थे। वे क्यों नहीं आये झारखंड के राष्ट्रीय खेल में सर, उनको आपलोगों ने क्यों नहीं भेज दिया जबरिया, इसका जवाब अब तक नहीं मिल पा रहा। आप सब व्यस्त रहे होंगे, खेल मंत्री के लिए तो वह एक बड़ा आयोजन था, वह तो आते, उन्हें तो भेजते आपलोग।
बहुत सवाल पूछते हैं अपने झारखंडी भाई लोग। कहते हैं कि कल संपदा का दोहन करना होगा तो झारखंड राष्ट्र का अभिन्न अंग हो जाएगा, कल माओवादियों का हमला होगा तो राज्य के वर्तमान और भविष्य का दिल्ली से ही खाका तैयार होगा और राज्य बनने के बाद पहली बार एक राष्ट्रीय आयोजन हो रहा था, तो यह राष्ट्र का अभिन्न अंग नहीं था। किसी को समय नहीं मिला। मालूम है सर, यहां के लोग पिछड़े हैं। मीन माइंडेड हैं, इसलिए ऐसी छोटी-छोटी बातों को बतंगड़ बना देते हैं। सच कह रहा हूं सर, मैं आपलोगों के क्रिकेटिया प्रेम का जरा भी विरोधी नहीं वरना यह सवाल ही सबसे पहले पूछता कि क्या किसी देश का पूरा सिस्टम एक खेल के लिए ठप किया जा सकता है! घोषित तौर पर। तब यह भी पूछता कि आखिर अमेरिका, चीन, रूस, जर्मनी, फ्रांस जैसे देश क्या अब तक इस खेल से इसी डर से तौबा करते आये हैं कि यह राष्ट्रविध्वंसक खेल है, जो एक बार में पूरे राष्ट्र की गति को आठ-आठ घंटे तक रोक कर रख देता है। अमेरिका, चीनवाले खेल में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हैं, यह तो आप जानते ही हैं न सर। ओलिंपिक में देखे हैं कि नहीं। मैं यह सब पचड़ा भरा सवाल नहीं कर रहा। एक मामूली नागरिक हूं। सवाल नहीं पूछ सकता। बस जी में आया तो आपसे साझा कर रहा हूं कि क्या वाकई हमारा देश राष्ट्रीयता के संकट के दौर से गुजर रहा है! बस यूं ही पूछ रहा हूं, अन्यथा न लीजिएगा।( साभार

बिदेसिया)