Friday 23 September 2011

कहाँ से लाओगे यह संस्कृति


भारत अनेक जाति –जनजातियों] धर्म –पंथों तथा संस्कृति –संप्रदायों का भंडार हैं। देश की जनसंख्या का ukS प्रतिशत हिस्सा आदिवासी का है। झारखण्ड की बात djas तो यह 28 प्रतिशत तक है। मुड़ा] असुर] बिहोर] बेदरा] गोंडा] हो] गोरती] बिंझिया vkfn उन 32 आदिवासी समुदायों में प्रमुख हैSA जिनके नाम पर झारखण्ड को अलग राज्य का दर्जा मिला है। इन आदिवासी समुदायों की अपनी रहन-सहन] वेश-भूषा] आभूषण] संगीत] रुचियाँ] रीति–रिवाज भाषा बोली] कृषि] पशुपालन] खान–पान] सोच–विचार आज भी लोगों को इनके बारे में जानने bUgas समझने के लिए उत्सुकता पैदा करती है। असुर जनजाति के आदिवासी को राज्य के सबसे पुराने होने का दर्जा मिला है। आज भी ये समुदाय *मड़* के बने घरों में रहना पसंद करते हैं। 20 लाख वाली मुंडा जनजाति के आदिवासी बोल-चाल और खान –पान में सर्दी&मराण्डी  जनजाति के सब से करीब मिलते हैं। वही म्चलिस जनजाति आज भी अपने  दिनचर्या का गुजारा बाँस से टोकरी] पतों से प्लेट (दोना) बना और उसे बेचकर करते हैं। जल] जंगल] जमीन की ये आदिवासी पूजा करते हैं। और यही इनके दोहन एवं शोषण का मूल कारण बना हुआ है क्योंकि सरकार अब निजी उद्योगपति के ज़रीए अब सरकार की नज़र bUgha taxykas&tehuksa  dh खनीज़ सम्पदा पर है।
झारखण्ड की सुदूर {ks=ksa से जब भी हम गुजरे तो जोहार झारखण्ड और भगवान बिरसा की जय के नारे हमेशा हमारे कानों को सुनने मिल जाते हैं। इस प्रदेश में देश की 40 प्रतिशत खनिज़ सम्पदा है vkSj ;kn j[kuk pkfg, fd जहाँ सालों से राज्य के 28 प्रतिशत आदिवासी रह रहे हैंA vjksi rks ;g Hkh gS fd सरकार विकास के नाम पर लगातार एक खास जनजाति को चयनित कर उनके घर से बेदखल कर रही है। बड़े–बड़े कारखाने] उद्योग के लिय ज़मीन उपलब्ध करना राज्य सरकार का मानो प्रथम लक्ष्य हो चुका है] फिर चाहे lSdM+ksa&हजारों आदिवासियों को उनके ही स्थान से उजाड़ना क्यो न पड़ेA हलाfक सरकार यह दावे करने में जरा भी देर नहीं करती की प्रभावितksa को काम और मकान पुनर्वास योजना के तहत दिया जाएगा। संभवता अगर करखानों  में काम मिल भी जाए तो क्या ये व्यवहारिक है की एक समाज हजारों सालों से अपनी बाँस से टोकरी] पतों से प्लेट] खेती या पर्यावरण पर निर्भर होकर अपनी जीविका चलता हो] वो आचनक से कारखाने में वील्डिंग और xzSfYMax करने लगेa\ अपनी औद्योगिक नीति के तहत झारखण्ड की rRdkyhu बाबूलाल सरकार ने राँची से बहिरगोड तक चार लेन की 300 किलोमीटर लंबी सड़क बनाने का निर्णय लिया था।  tkfgj gS  fd इस सड़क को बनाने में आदिवासियों की जमीन ली गयी। इस योजना को लागू करने पर अनुमानित तीन लाख लोग विस्थापित हु,A vkf[kj  कहाँ गए ये लोग\ vc ;s क्या dj jgsa gksxas\ सरकार  blls बेपरवाह jgh  हैA इस असंतोष-आक्रोश ने अब लोगों के हाथ में बंदूकें थमा दी हksa rks blesa vk”p;Z D;k gS\ सोचने की बात rks है की अगर कोई आदिवासी जनजाति जल&जंगल&ज़मीन से बेदखाल  gq,  बिना ही विकास चाहती है तो सरकार उन्हें लगातार बदलने की कोशिश  क्यों कर रही है\
भारतीय संविधान के धारा 342 के तहत भारत में 697 समुदाय के आदिवासी हैं। इनdh  बेहतरी के लिए आदिवासी कल्याण मंत्रालय भी है। इसी तर्ज पर झारखण्ड में भी आदिवासी के विकास के लिए अलग विभाग हैं। राज्य की नौकरियों में आदिवासीयों के लिए आरक्षण की नीति अपनाई गयी है rkfd उनकी समाज में भागेदारी सुनिश्चित हो सके। पर जिस राज्य को आदिवासी राज्य होने है दर्जा मिला हो। जहां अभी तक सारे मुखमंत्री आदिवासी बने हैं। उसी राज्य में आदिवासियों के साथ सांस्कृतिक] सामाजिक] राजनीतिक] आर्थिक अन्याय देखने को मिल रहा है। संचार का सबसे बड़ा माध्यम शिक्षा आज भी इनसे कोशों दूर है । 71.4 प्रतिशत आदिवासी बच्चे प्राथमिक विद्यालय तक भी नहीं पहुँच पते है। 17.7 प्रतिशत माध्यमिक के बाद स्कूल को टाटा कह देते हैं। 10 क्लास तक ये आकड़ा 16.5 प्रतिशत तक रह जाता है। बात साफ है कि सरकार जो शिक्षा का अलक जागकर आदिवासियों को जागरूक सजक] आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश में है ये बात उन तक संप्रेषित नहीं हो पा रही है। केंद्र और राज्य सरकार की कई लाभकारी योजना, सरकारी इच्क्षा&शक्ति की कमी की वजह से दूर हैं। आज भी विज्ञापन होर्डिंग या सरकार dk प्रचार–प्रसार माध्यम आदिवासियों की भाषा u gksdj  हिन्दी या इंग्लिश में है। जिसे उन्हें समझने में काफी परेशानी होती है या जो उनके लिए संप्रेषणीय नहीं है। भाषा का अजनबीपन हमेशा से सरकार और आदिवासियों ds  chp  कम्युनिकेशन गैप का काम कर रहा है। आज भी इन इलाकों में सड़क] बिजली] पानी की कोई सुविधा नहीं है। यानी मूलभूत सुविधाओं से कोशों दूर हैं। सरकारी संचार तंत्र- जनसम्पर्क विभाग] आदिवासी कल्याण विभाग] प्रिंट विभाग] फिल्म विभाग] सेंट्रल फील्ड प्रचार विभाग आदि आदिवासी के मामलों में मात्र खानापूर्ति के लिए काम कर रहे है। पंचायत] नगर] ज़िला] केंद्र के स्तर पर कई योजना, आदिवासियों को लाभ और उनकk स्तर को ऊपर लाने के लिए बनी है] जिनकks समझus से वे काफी दूर है और सरकारी संचार तंत्र इन मामलों में उदासीन बन बैठी है। सवाल है की अगर कोई समुदाय  या जनजाति पर्यावरण से जल] जंगल] जमीन से जुड़े रहना चाहता है ftlls og सदियों से tqM+k Hkh  रहा है तो सरकार उनके विकास की योजना उनके प्रकृति ds vuq#i में क्यो नहीं तैयार कर रही है\ निसंदेह विभिन्न आदिवासी समुदायों की वर्तमान के लिए शोषकों द्वारा विनिर्मित धूसर अतीत और जारी वर्तमान जिम्मेवार है] ysfdu ;fn lpewp ge pkgrsa gS fd mudk  भविष्य सुनहरा हो rks इसके लिए आदिवसियों के साथ मिलकर सांस्कृतिक] सामाजिक] राजनीतिक] आर्थिक आदि कई मोर्चों पर लड़ाई लड़नी होगीA सरकार को सुदूर अतीत में विभिन्न आदिवासी समुदायों के जीवट और संघर्ष की सार्थकता को जहां पीछे मुड़कर याद करना ही चाहिए वही निकट भविष्य में उनकी सफलता चरम और निरंतर सुनियोजित विकास तक iaqचाने का प्रयास करना चाहिए। 
 D.A.N LUCKNOW (22-9-11) MEI PRAKASITA
 

Tuesday 6 September 2011

सियासी बिसात कैसे बिछी अन्ना के लिये

जनलोकपाल की लड़ाई क्या ऐसे मोड पर आ गई है, जहां कांग्रेस को अब अपने आप को बचाना है और बीजेपी को इस आंदोलन को हड़पना है। यानी आंदोलन के लिये उमड़े जनसैलाब ने सरकार को भी जनलोकपाल के पक्ष में खड़े होने को मजबूर किया है और बीजेपी भी इसके जरीये अपनी सियासत ताड़ना चाहती है। इसकी असल बिसात आज सुबह ही तब शुरु हुई जब एनडीए ने यह मान लिया कि जनलोकपाल को लेकर सरकार हरी झंडी कभी भी दे सकती है। ऐसे में भ्रष्टाचार के मुद्दे के जरीये अपनी राजनीतिक पहल करने की कोशिश अगर बीजेपी ने यह कहकर दी लेकसभा और राज्यसभा में प्रशनकाल की जगह भ्रष्ट्राचार पर बहस की जाये तो दूसरी तरफ जनलोकपाल पर अपनी रणनीति को आखरी खांचे में समेटने के लिये सरकार ने सभी पार्टियों को बुधवार की दोपहर का न्यौता यहकहकर दे दिया कि जनलोकपाल पर संसद में सहमति बनाना जरुरी है।
इसी वक्त में अपनी रणनीति को अंजाम तक पहुंचाने के लिये अपने सारे घोड़े भी खोल दिये, जिसका असर यह हुआ कि श्री श्री, जो लालकृष्ण आडवाणी के लिये सिविल सोसायटी के जरीये समूचे आंदोलन को हड़पने की तैयारी कर रहे थे और लगातार अन्ना की टीम को आडवाणी के दरवाजे तक ले जाने में जुटे थे। उनकी पहल से पहले ही सलमान खुर्शीद ने जनलोकपाल पर अपनी सहमति देते हुये अरविंद केजरीवाल को बातचीत का न्यौता यहकहकर दे दिया कि सरकार कमोवेश हर मुद्दे पर तैयार है। आप सिर्फ आकर मिल लें।
जाहिर है कांग्रेस और बीजेपी दोनो के लिये अन्ना का आंदोलन जनलोकपाल के मुद्दे से आगे इसलिये निकल चुका है क्योंकि संसदीय लोकतंत्र में किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिये जितनी जरुरत जनता की होती है, उससे कहीं ज्यादा जनसैलाब को अन्ना हजारे ने बिना अपना राजनीतिकरण किये कर दिखाया। इतना ही नहीं अन्ना के आंदोलन का मंच शुरु से ही राजनीति को ठेंगा दिखाते हुये शुरु हुआ और रामलीला मैदान से जिस तरह ना सिर्फ सरकार बल्कि राष्ट्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस और बीजेपी को भी जनतंत्र का आईना दिखाया गया। उसमें आंदोलन को कौन अपने पक्ष में कर सकता है इसकी होड़ मची। प्रणव मुखर्जी को बीच में लाने का फैसला भी इसीलिये लिया गया कि एनडीए किसी भी तरह से सरकार के वार्ताकार प्रणव मुखर्जी पर निशाना नहीं साधेगा और भ्रष्टाचार को लेकर एनडीए जिन मुद्दो को संसद में उठा सकता है या फिर सर्वदलीय बैठक में उठायेगा उसका जवाब प्रणव मुखर्जी हर लिहाज से बेहतर दे सकते हैं।
लेकिन यही से संकट बीजेपी का शुरु होता है। उनकी रणनीति में जनलोकपाल को खुला समर्थन का फैसला यह सोच कर टाला गया कि अगर अन्ना टीम उनके दरवाजे को सरकार से पहले ठकठकाती है तो देश में संकेत यही जायेंगे कि जनलोकपाल को लेकर सरकार चाहे ना झुके लेकिन बीजेपी की अगुवाई में एनडीए संसद के भीतर जनलोकपाल का समर्थन करेगा। मगर राजनीतिक शह मात में बीजेपी इस हकीकत को समझ नहीं पायी कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आंदोलन उसी वक्त उसके हाथ से निकल जब सांसदो के घरों को घेरने निकले लोगों ने कांग्रेस और बीजेपी के सांसदो में फर्क नही किया। और कांग्रेस के भीतर से सांसदों ने अन्ना हजारे के पक्ष में बीजेपी के सांसदों से पहले ही पक्ष लेना शुरु कर दिया। यानी जिस लड़ाई में सरकार चारों तरफ से घिरी हुई है उसमें बीजेपी के रणनीतिकार यह नही समझ पाये उनकी हैसियत सियासी खेल में अभी विपक्ष वाली है और पहले उन्हे साबित करना है कि वह सरकार के खिलाफ मजबूत विपक्ष है। इसके उलट बीजेपी की व्यूहरचना खुद को सत्ता में पहुंचाने के ख्वाब तले उड़ान भरने लगी। इसका लाभ सरकार को यह मिला कि अन्ना के जनसैलाब के सीधे निशाने पर होने के बावजूद व्यूह रचने के लिये वक्त अच्छा-खासा मिल गया। और कांग्रेस के लिये राहत इस बात को लेकर हुई इस मोड़ पर भ्रष्ट्राचार की उसकी अपनी मुहिम भोथरी नहीं है, यह कहने और दिखाने से वह भी नहीं चुकी। यानी जिस रास्ते आरटीआई आया और काग्रेस इसे आज भी भुनाती है उसी तरह जनलोकपाल के सवाल को भी वह भविष्य में अपने लिये तमगा बना सके , दरअसल राजनीतिक बिसात इसी की बिछी। इसलिये सरकार जो रास्ता बातचीत के लिये खोल रही है और बीजेपी जिन रास्तों से जनलोकपाल के हक में खडे होने की बात करने की दिशा में बढ रही है वह वही संसदीय लोकतंत्र का चुनावी मंत्र है जिसपर प्रधानमंत्री ने 17 अगस्त को संसद में अन्ना के आंदोलन से खतरा बताया था।दूसरी तरफ अन्ना के आंदोलन को लेकर कांग्रेस और बीजेपी जिस मोड़ पर एकसाथ खड़े हैं, वह रामलीला मैदान में आमलोगो का छाती पर इस स्लोगन को लिखकर घुमना कि आई एम अन्ना एंड आई नाम नाट ए पालेटिशियन है।
इसे ही कांग्रेस-बीजेपी दोनों बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि दुनिया भर में संदेश यही जा रहा है कि बीते ते साठ बरस में पहली बार वही संसदीय राजनीति आम लोगों के निशाने पर जिसके आसरे दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश होने का तमगा भारत ढोता रहा। यह सवाल जनलोकपाल से ना सिर्फ आगे जा रहा है बल्कि मंत्रियों-सांसदों के घरों के बाहर बैठकर भजन करते अन्ना के समर्थन में उतरे लोग इस सवाल को खड़ा कर रहे है कि क्या लोकतंत्र का मतलब चुनाव के बाद पांच साल तक देश की चाबी सांसदों को सौप देने सरीखा है। या फिर इस दौर में संसदीय चुनाव के तरीके ही कुछ ऐसे बना दिये गये जिसमें सामिल होने के लिये न्यूनतम शर्त भी दस हजार की उस सेक्यूरटी मनी पर जा टिकी है जिसके हिस्से में देश के 80 करोड़ लोग आ ही नहीं सकते। और अगर चुनाव की समूची प्रक्रिया के बीतर झांके तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे छोटा हिस्सा ही चुनाव मैदान में उतर सकता है, क्योंकि चुनाव मुद्दो के आसरे नहीं वोट बैक और बैंक के बाहर जमा कालेधन के जरीये लड़ा जाता है। इसका पहला असर यही है कि मौजूदा लोकसभा में 182 सांसद ऐसे हैं, जिन पर भ्रष्टाचार या अपराध के मामले दर्ज हैं। और छह क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के सर्वेसर्वा यानी अध्यक्ष ही भ्रष्टाचार के आरोप में फंसे हुये हैं और उनकी जांच सीबीआई कर रही है।
ऐसे में जनलोकपाल के दायरे में सांसदों या मंत्रियों के साथ साथ प्रधानमंत्री को लाने पर वही संसद कैसे मोहर लगा सकती है यह अपने आप में बड़ा सवाल है। लेकिन अन्ना के आंदोलन से खडे हुये जनसैलाब ने पहली बार संसदीय लोकतंत्र को जनलोकपाल जनतंत्र के जरीये वह पाठ पढाया जिसमें सरकार को भी इसका एहसास हो गया कि जनसैलाब की भाषा चाहे सियासी ना हो लेकिन सियासत को उसके पिछे तब तक चलना ही पडेगा जबतक यह भरोसा समाज में पैदा ना हो जाये कि सत्ता के सरोकार आम लोगो से जोड़े हैं। और बीते हफ्ते भर में अविश्वास की लकीर ही इतनी मोटी हुई कि उसने राजनीति को भी सीधी चुनौती दी। और यह चुनौती दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में कैसे ठहाका लगा कर लोकतंत्र पर सवालिया निशान लगा रही है यह प्रधानमंत्री या मंत्रियो या सांसदो के घरो के घेरेबंदी के वक्त लोग महसूस कर रहे हैं ।
दरअसल, अन्ना हजारे ने इसी मर्म को पकड़ा है, और जनलोकपाल के सवालो का दायरा इसीलिये बड़ा होता जा रहा है। और अन्ना की छांव में अब यही से वह राजनीतिक अंतर्विरोध भी उभरने लगे है जो सत्ता की होड में सरकार को घेरेने के लिये हर स्तर पर राजनीतिक दल को खड़ा करती है और सासंदो के भीतर उत्साह दिखाती है। कांग्रेस के संसदों के घर के बाहर संघ के स्वयंसेवक अन्ना की टोपी लगा कर बैठ रहे हैं तो बीजेपी के सांसदो के घर के बाहर कांग्रेस के कार्यकत्ता भी मै अन्ना हूं कि टी शर्ट पहन कर बीजेपी सांसद से सवाल कर रहे हैं कि आपका रुख जनलोकपाल को लेकर है क्या। पहले इसे बताये। यानी जनता के मुद्दो के जरीये राजनीति लाभ उटाने की कोशिश भी इस दौर में शुरु हो चुकी है। लेकिन जिस मोड पर अन्ना हजारे राजनीतक दलो को बैचेन कर रहे हैं। सासंदो को पशोपेश में डाल चुके हैं कि उनका रुख साफ होना चाहिये उस मोड पर एक सवाल यह भी है कि जिन जमीनी मुद्दो को लेकर अन्ना के साथ देश के अलग अलग हिस्सों से लोग जुडते चले जा रहे है, अगर इससे संसद के भीतर सांसदो की काबिलियत पर ही सवाल उठने लगे हैं तो फिर चुनाव का रास्ता किसी भी राजनीतिक दलो की वर्तमान स्थिति के लिये कैसे लाभदायक होगा। इस प्रक्रिया को राजनीतिक दल या सांसद समझ नहीं रहे है ऐसा भी नहीं है क्योकि उनकी पहल अभी तक यही बताती है कि सरकार अपने कामकाज में फेल । जबकि सडक पर बैठे जनसैलाब को यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि वह चुनाव लड़ना नहीं चाहता , लेकिन चुनाव जीत कर पहुंचे संसद की गरिमा को भी अब घंघे में बदलने नहीं देगा। और यह सवाल आजादी के बाद पहली बार गैर राजनीतिक मंच से राजनीति को चुनौती देते हुये जिस तरह खडा हुआ है उसने संसदीय लोकतंत्र को ही कटघरे में खड़ा कर दिया है। और दिल्ली के जिस रामलीला मैदान पर 1975 में जेपी ने कहा था कि सिहासंन खाली करो की जनता आती है, उसी रामलीला मैदान में हजारों हजार लोग छाती पर यह लिख कर बैठे है कि माई नेम इड अन्ना एंज आई एम नाट ए पोलेटिशन।
पुण्य प्रसून बाजपेयी