Saturday 26 March 2011

मैं रहूंगी तो समाज का पानी भी बचाकर रखूंगी।


मैंआपकी होली। पिछले कुछ वर्षों से मुझसे एक बड़ा वर्ग अलगाव-दुराव का भाव बरतने लगा है। वे कहते हैं कि मैं तो लुच्चे-लफंगों का त्यौहार हूं। मुझे उन्मादी बताते हैं। लेकिन मैं वैसी हूं नहीं। लोक को मस्ती में पिरोनेवाली हूं मैं। पर्व-त्यौहारों, धार्मिक उत्सवों-आयोजनों के बीच अपने तरह की संभवतः अकेली हूं मैं। धार्मिक पर्व-त्यौहार की शक्ल में रहते हुए भी उससे बहुत अलहदा हूं। सीधा वास्ता नहीं है मेरा धार्मिक अनुष्‍ठानों या कर्मकांडों से। मेरे नाम पर पूजा-पाठ कर लो तो ठीक, नहीं करो तो भी कोई बात नहीं। अन्य पर्व-त्यौहारों की तरह किसी खास देवी-देवता की उपासना से भी मेरा ठोस संबंध नहीं। ब्रज वाले कृष्‍ण को केंद्र में रखते हैं, अवध वाले रामचंद्र को। बनारस वालों के लिए दिगंबर यानी शंकर की होली भाती है। गांव-जवार में अपने-अपने कुलदेवता को केंद्र में रखते हैं सब। परलोक से भले वास्ता ज्यादा न हो लेकिन लोक से जितना वास्ता है, उतना शायद अन्य त्यौहारों का नहीं।
अब भी चलो गांव में, देख लो कि मैं कैसे अपने नाम पर जातीय और सांप्रदायिक दूरियों को पाटती हूं। कोई दलित और अगड़ी का भेद नहीं होता। जिसे चाहे रंग लगाओ, राह गुजरते हुए पीछे से धूल-गरदा डालकर भाग जाओ। कोई किसी भी जाति का हो, गांव की सार्वजनिक जगह पर जब गीत-गवनई का दौर शुरू होता है, तो यह नहीं पूछा जाता कि कौन फलां जाति का है, कौन क्या है। सब एक साथ बैठते हैं ढोल, झाल लेकर। एक ही रंग में रंगे हुए। बड़े लोगों के दरवाजे पर भी उसी भदेस अंदाज में बात होती है, जो अंदाज किसी मामूली और छोटे लोगों के दरवाजे पर होता है। मस्ती, मस्ती और मस्तीअल्हड़पन के साथ सामूहिकता को बचाये-बनाये रखने की कोशिश होती है मेरी। मैं सिर्फ हिंदू की नहीं हूं।
फणीश्वरनाथ रेणु को जानते हो न! वे अपने गांव में होली गाने के बाद बगल के मुसलमानों के गांव में झलकूटन का आयोजन करवाते थे। वाजिद अली शाह, नजीर अकबराबादी का नाम सुना है आपने, मेरे पर कई-कई गीत लिख डाले हैं उन्होंने। और भी कई हैं, कितना बताऊं। यह तो आप भी मानते हो न, मैं अकेली हूं, जिसे आप चाहकर भी अकेले नहीं मना सकते। आप दिवाली की तरह नहीं कर सकते कि घर में तरह-तरह के पटाखे लाओ, मिठाइयां लाओ, नये कपड़े पहनो और चकाचौंध लाइट वगैरह जलाकर मना लो। मैं व्यक्तिवाद को तोड़ती हूं। होली मना रहे हो या मनाओगे, इसके लिए समूह में आना ही होगा। दिन-ब-दिन व्यक्तिवादी होते समाज और पर्व-त्यौहारों के बदलते स्वरूप के बीच मेरी पहचान ही सामूहिकता से है।
सब यह भी कहते हैं कि मैं तो दारू-सारू वालों की हूं। यह तो वैसी ही बातें करते हैं जैसे पूरा समाज एक मेरे लिए ही सालों भर इंतजार करता रहता है कि मैं आउं तो दारु-सारू पिएगा। बाकी सालों भर हाथ ही नहीं लगाता। सड़कों पर शादी-बारात का जो जुलूस दिखता है, उसमें कोई कम पीकर हंगामा करते हैं। वही क्यों, सरस्वती पूजा, दुर्गा पूजा के भसान में तो दारू उत्सव ही मनाते हैं सब। कोई नेता जीत जाए तो दारू की नदी बहती है, किसी को जीतना हो तो दारू का ड्रम लाकर रखता है। फिर मेरे से ही दारू वगैरह का नाम क्यों जोड़ते हैं सब। खैर! मैं इससे बहुत परेशान नहीं हूं। मैं आज खुद को बचाने की गुहार लगा रही हूं तो उसकी वजह कुछ दूसरी है, जिससे मेरे अस्तित्व पर संकट मंडराता दिख रहा है।
अब उन्मादी के बाद मुझमें संकट के तत्वों की तलाश की जा रही है। रोज-ब-रोज तरह-तरह के विज्ञापन आ रहे हैं। अभियान चल रहा है। अनुरोध किया जा रहा है। निजी और सरकारी स्तर पर भी। प्रकारांतर से सबकी एक ही गुहार है, एक ही सलाहियत है कि सुखी होली खेलें, तिलक होली खेलें, अबीर की होली खेलें, पानी को बचा लें। पानी को बचाने के लिए मुझे बीच में लाया गया है। सामूहिक रूप से कोशिश हो रही है, जैसे जल संकट का कारण मैं ही हूं। आंकड़े बताये जा रहे हैं कि मैं कितना पानी बर्बाद करवा देती हूं। साल में एक दिन आती हूं मैं, तो इस कदर मेरे नाम से भय का भाव भरा जा रहा है। पानी का वास्ता देकर। कोई यह नहीं पूछता कि एक-एक आदमी ने अपने समाज में कई-कई गाड़ियां क्यों रखी हैं। इटली समेत कई देशों में तो एक घर में एक गाड़ी से ज्यादा रखी ही नहीं जाती। एक-एक आदमी ने यहां चार-चार गाड़ियां रखी हैं। उन्हें धोने में जो पानी जाता है, उससे पानी की बर्बादी नहीं होती क्या?
मेरी पहचान को खत्म करने का अभियान चल रहा है। जैसे मैंने ही सारे जलस्रोतों को सूखा दिया है। नदियों का अस्तित्व मैंने ही खत्म कर दिया है। तालाबों और जलाशयों के नामोनिशां जैसे मैंने ही मिटा दिये हैं। मैं लोक पर्व हूं, सामूहिकता में जीती हूं। मैं पानी बचाने का विरोध नहीं कर रही। पानी बचेगा तभी मैं बचूंगी लेकिन मेरे मूल पहचान को भी बचे रहने दो। अब तो रंग-पानी ही मेरी पहचान है न! पहले तो लोग अलकतरा, अलमुनियम पेंट वगैरह भी लगा देते थे लेकिन अब सब अपने-अपने समाज ने बदल लिया है। समाज चाहता है कि उसका आयोजन बदलते समय के साथ सुंदर रूप में रहे। सर्वाइव करने लायक रहे। अब रंग-पानी पर भी आफत नहीं लाओ। अखबारवाले अभियान नहीं चलाओ न! लोगों का मानस नहीं बदलो न! मुख्यमंत्री-राज्यपाल वगैरह भी अपील कर रहे हैं कि सूखी होली खेलें, तिलक-अबीर होली खेलें। वे यह क्यों नहीं कहते कि एक गाड़ी रखो, गाड़ी रोज नहीं धोया करो, वह पानी की ज्यादा बर्बादी करवाता है। मैं ही सबके निशाने पर क्यों हूं। बाजार वाले चाहकर भी मेरे नाम पर दीपावाली या दशहरे की तरह बाजार खड़ा नहीं कर पा रहे इसलिए क्या! नहीं मालूम। लेकिन एक सच्ची बात कहूं। मैं रहूंगी तो समाज का पानी भी बचाकर रखूंगी। मुझे बचा लो प्लीज। (मोहल्लालाइव से साभार)

शुभस्ते पंथान:


उसने कहा विनम्र बनो
मैं डरपोक हो गया.
उसने कहा संतोष बड़ा धन है
मैं आलसी और गरीब हो गया.
उसने कहा निडर रहो
मैं असभ्य हो गया.
जब निर्भय होने को कहा
मैं आक्रामक हो गया.
उसने सदा अस्मिता की बात की
मैं अहंकारी हो गया.
उसने कहा चुप रहना अच्छी बात है
मैं गूंगा हो गया.
जब खुल कर बोलने को कहा
मैं अमर्यादित हो गया.
उसने कहा स्पष्टवादी बनो
मैं दिल दुखाने लगा.
उसने समझदार बनाने की सलाह दी
मैं चतुर और चालाक बन गया.
उसने कहा द्रढ़ रहो
मैं जिद्दी हो गया.
उसने कहा काम आराम से करना चाहिए
मैं पूरा सो गया.
उसने कहा विफलता इतनी बुरी नहीं होती
मैंने प्रयास छोड़ दिए, विफलता की आदत डाल ली.
उसने कहा सांप मत बनना
मैं केंचुआ बन गया.
उसने अहिंसा को बड़ा गुण बताया
मैं पत्ता-गोभी बन गया.
उसने कहा भगवान् है
मैं निट्ठल्ला हो गया.
उसने कहा सब कुछ भगवान् थोड़े ही देखता है
मैं चोर बन गया.
वह कुछ कहता रहा
मैं कुछ बनता गया
मैं समझाने लगा
वह माना नहीं.
फिर मुझे भी गुस्सा आ गया
मुझे आदमी ही रहने दो
देवता क्यों बनाते हो
ये दुनियां किताबी बातों से नहीं चलती.
वह रुका और कहा-मैं तो खुद आदमी बनने की राह का पथिक हूँ
आपको देवता क्या बनाऊंगा?
आपने कुछ पूछा जरूर होगा
लेकिन कहा मैंने खुद से है
आपने सुन लिया होगा,
पर अमल तो मुझे करना है
आप जैसे भी हो, प्यारे हो
अपने हिसाब से इंसानियत की राह पर हो.
लेकिन यहाँ से मेरी राह जुदा होती हैं
चाहो तो साथ चलो, क्योंकि मंजिल तो एक ही है
अलग चले तो फिर मिलेंगे
साथ रहे तो साथ हैं ही.
विदा दोस्त! आपके साथ सफ़र बहुत अच्छा रहा
शुभस्ते पंथान:
और वह गुनगुनाता हुआ मुड़ गया.
मुझे जीत की इतनी खुशी नहीं हुई
जितना उसके बिछुड़ने का गम.
सोचा भी चल पडूँ उसी के साथ
या फिर पुकार लूं अपनी ही राह पर.
सोचता खड़ा रहा फिर चल पड़ा अपनी ही डगर.
कानों में अब भी उसकी गुनगुनाहट गूंजती है
जो कोई भजन नहीं था
एक फ़िल्मी गाना था
(ज्योति कलश छलके !!...शायद!)
कभी कभी उसकी याद बड़ी शिद्दत से आती है
उसकी बातें आँखों के सामने मुस्कुरातीं हैं
कभी कभी वह हमराह चलता दिखाई भी देता हैं
पर वो भरम है.
में अपनी बात पे कायम हूँ
उसकी पता नहीं क्या जिद है?
मेरी बला से! साभार हिन्द -युग्म 

 

Sunday 6 March 2011

रेल का राजनीतिक सफर

-के  बाबला

हवाई चप्पल,सूत साड़ी पहनकर संसद भवन पहुँचने वाली ममता बनर्जी को पता है कि उनकी राजनीतिक यूएसपी आम आदमी है। अब इसी आम आदमी के माध्यम से ममता दीदी तृणमूल काँग्रेस का झण्डा राज्य सचिवालय (राइटर बिल्डिंग) में लहराता देखना चाहती हैं, और खुद को पश्चिम बंगाल की मुखमंत्री की गद्दी पर कबीज़। इस चक्कर में अगर रेल बजट 2011-12 में बंगाल के लिए कुछ ज्यादा निकल भी जाता है तो हमें बुरा नहीं लगना चाहिए। क्योंकि कल की राजनीति में आज ही निवेश करना ममता ने आपने राजनीतिक गुरु प्रणब दा से सीखा है। ममता बंगाल की नई पहचान बनना चाहती हैं, और रेल बजट से बंगाल में परियोजनाओं की बरसात कर विधानसभा चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित करना चाहती हैं। 294 विधानसभा सीटों वाले पश्चिम बंगाल में 45 योजनाएँ लागू कर दीदी प्रत्यक्ष रूप से 90 विधानसभा सीटों में अपनी पकड़ मजबूत कर रही हैं। सिंगूर और नंदीग्राम में किसान, आदिवासी की जमीन पर रेल कारख़ाना, ओध्योगिक पार्क खोल साथ ही लोगों को नौकरी बाँट रेल के जरिए विकास का सपना दिखाया जा रहा है। इन सब के बीच दीदी का हमेशा से खास रहा कोलकाता में तृणमूल काँग्रेस ने पिछले साल नगर निकाय चुनावों में भारी जीत हासिल की है। इसी जीत को विधानसभा चुनावों में बरकरार रखने के लिए कई परियोजनाओं की झड़ी लगा दी गई है। कोलकाता की जीवन रेखा मानी जाने वाली मेट्रो के लिए ममता के पास 34 योजनाएँ हैं। 50 लोकल, 16 उप नागरी ट्रेन, 50 सब अर्बन गाडियाँ, मदर टेरसा, रवीन्द्रनाथविवेकानंद के नाम ट्रेन जैसी योजनाओ के जरिए ममता हर आम और खास तक पहुँच वामदलों के किले में सेंध की कोशिश में है, जहां 32 सालों से उनका आधिपत्य है। रेल बजट को चुनावी मेनिफेस्टो के रूप में प्रस्तुत कर ममता ने कोलकाता वासियों को खुश तो कर दिया लेकिन ममता की गाड़ी यहीं नहीं रुक रही। पश्चिम बंगाल से पहचान बनाने वाली ममता की तैयारी नॉर्थ ईस्ट से होते हुये पूरे भारत को हरे रंग में रंगने की है। मणिपुर, अरुणाचल, असम, मेघालया, त्रिपुरा, सिक्क्म, नागालैंड के राजधानी में तृणमूल काँग्रेस का दफ्तर खोल दीदी नॉर्थ ईस्ट में अपनी उपस्थिति पहले ही दर्ज करा चुकी है। बजट में मणिपुर को रेल कारख़ाना तथा नॉर्थ ईस्ट के कई राज्य तक रेल पहुंचा ममता रेल के साथ नॉर्थ ईस्ट में अपना राजनीतिक सफर को आगे बढ़ाने के प्रयास में है। बहरहाल ममता इस समय अपना पूरा ध्यान 16 अप्रैल से होने वाले बंगाल विधानसभा चुनाव में दे रही हैं। क्योंकि दिल्ली का रास्ता भी यहीं से साफ होता है।
    
ममता समझती हैं देश में महंगाई है इसलिए किराया न बढ़ाते हुये यात्रियों पर पड़ने वाले आर्थिक बोझ को कम किया है। 56 नई एक्सप्रेस, 9 दुरान्तो, 3 सताब्दी, 22 डी.एम.यू, 13 पैसेंजर के अलावा 33 ट्रेनों का विस्तार और यात्रियों के लिए मल्टीपर्पस स्मार्ट कार्ड की शुरुआत कर यात्रा सुविधाजनक बनाने के कोशिश जारी है । परंतु वर्तमान जर्जर एवं कमजोर पटरियों के भरोसे 103 नई ट्रेन को हरी झंडी दिखाई जाएगी। जिन पटरियों को 8 साल में बदल दिया जाना था उनपर 12 साल तक ट्रेनें दौड़ना क्या दुर्घटनाओं को खुला निमंत्रण नहीं है? ममता सामाजिक दायित्व निभाते हुये रेलवे स्टेशनों के किनारे झोपडी में रहने वालों को गृह सुखी योजना के तहत 10 हजार पक्के आशियाने उपलब्ध कराने का वादा कर अपने आप को गरीबों का सबसे बढ़ा हितैषी साबित करने की कोशिश में है। सीमा पर लड़नेवाले 16 हजार पूर्व सैनिकों को नौकरियाँ दे देश को रेल के मानवीय चेहरा से रु ब रु करने के प्रयास में है। देखना होगा कि पिछले 174 परियोजनाओं की तरह ये योजनाएँ भी सिर्फ हवाई दावे बनकर न रह जाए, बल्कि योजनाओं को अमली जामा पहनाना भी उन्ही के जिम्मे है। लालगढ़ ,सिंगूर, नंदीग्राम जैसे जनांदोलनों से किसान और आदिवासी नेता की छवि बना चुकी ममता अपनी राजनीतिक दायरे को राष्ट्रीय परिदृश्य में ले जाने की जुगत में है। इस क्रम में रेड कॉरीडोर (बस्तर, झारग्राम, गढ़चिरोली, जंगल महल, झारखंड) के नक्सल प्रभावित इलाकों तक रेल गाड़ियों का परिचालन कर किसानों, आदिवासियों को रेल के जरिए विकास का सफर कराने की कोशिश में है। लेकिन आशंका यह है कि आम आदमी के आड़ में रेल परियोजनाओं के जरिये इलाके की खनिज पदार्थों तक उद्योगपतियों की पहुँच आसान करने की कोशिश तो नहीं है? राजनीति के इस सफर में दीदी वामदलों को हर हाल है में चुनौती देने की तैयारी में है। दीदी किसी भी हाल में वाम दलों को सत्ता से बाहर देखना चाहती हैं।



इन सब से इतर रेल से रोज 1.5 करोड़ सफर करने वाले यात्री सिर्फ समय के दृष्टि से किफ़ायती और दुर्घटना रहित यात्रा करना चाहते है। मंत्री महोदया का कहना है, रेल दुर्घटनाओं में 15 प्रतिशत की कमी आई है। लेकिन पिछले साल 90 रेल दुर्घटनाओं में तीन सौ से ज़्यादा लोगों ने अपनी जान गवाई है। दुर्घटनाओं को कम करने के लिए मंत्री महोदया बजट में एंटि कोल्लिजन डिवाइस(ए.सी.डी), मानव रहित क्रोससिंग को खत्म, सिंगनल दुरस्त करने की बात कर रही हैं। 1991 में शुरू हुई ए.सी.डी तकनीक को हर रेल मंत्री अपने कार्यकाल में चालू करने का भरोसा देता है। साथ ही 45 करोड़ के लागत से तैयार एक ए.सी.डी को 9000 इंजनों में लगाना कितना प्रासंगिक है यह मंत्री महोदया खुद समझती हैं, वह भी जब ए.सी.डी की 100 प्रतिशत सफलता की गारंटी लेने को कोई तैयार नहीं है। आज टेक्नालजी इससे कहीं आगे निकल चुकी है। सुविधाओं की खबर ले तो गंदे प्लाटफार्म, भोजन की स्तर हीनता, गाड़ियों के डिब्बो में खचा-खच भीड़, समय सारणी का पालन ना होना, भारतीय रेल में आम बात हैं जिसकी कोई चर्चा आम आदमी के रेल बजट में नहीं की गई है। इन सब के बावजूद ममता दीदी इसे आम आदमी का बजट बता रही है। जानकारों की माने तो रेल से राजनीति साधी जाती है। ममता ने राजनीतिक लाभ के लिए रेल बजट को डीरेल किया। वहीं विपक्ष इसे बंगाल का रेल बजट बता रहा है। जो भी हो आम आदमी को मतलब इससे नहीं है कि ममता इस रेल बजट से अपनी राजनीतिक कैरियर में कितनी लंबी छलांग लगाती है उसे मतलब है तो सिर्फ इससे कि जब वह सफर करे तो ममता कि योजनाएँ बाथरूम के बाहर लेटी हुई न मिले।       
10 मार्च  2011 D.N.A LUCKNOW संस्करण में प्रकाशित