Sunday 6 March 2011

रेल का राजनीतिक सफर

-के  बाबला

हवाई चप्पल,सूत साड़ी पहनकर संसद भवन पहुँचने वाली ममता बनर्जी को पता है कि उनकी राजनीतिक यूएसपी आम आदमी है। अब इसी आम आदमी के माध्यम से ममता दीदी तृणमूल काँग्रेस का झण्डा राज्य सचिवालय (राइटर बिल्डिंग) में लहराता देखना चाहती हैं, और खुद को पश्चिम बंगाल की मुखमंत्री की गद्दी पर कबीज़। इस चक्कर में अगर रेल बजट 2011-12 में बंगाल के लिए कुछ ज्यादा निकल भी जाता है तो हमें बुरा नहीं लगना चाहिए। क्योंकि कल की राजनीति में आज ही निवेश करना ममता ने आपने राजनीतिक गुरु प्रणब दा से सीखा है। ममता बंगाल की नई पहचान बनना चाहती हैं, और रेल बजट से बंगाल में परियोजनाओं की बरसात कर विधानसभा चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित करना चाहती हैं। 294 विधानसभा सीटों वाले पश्चिम बंगाल में 45 योजनाएँ लागू कर दीदी प्रत्यक्ष रूप से 90 विधानसभा सीटों में अपनी पकड़ मजबूत कर रही हैं। सिंगूर और नंदीग्राम में किसान, आदिवासी की जमीन पर रेल कारख़ाना, ओध्योगिक पार्क खोल साथ ही लोगों को नौकरी बाँट रेल के जरिए विकास का सपना दिखाया जा रहा है। इन सब के बीच दीदी का हमेशा से खास रहा कोलकाता में तृणमूल काँग्रेस ने पिछले साल नगर निकाय चुनावों में भारी जीत हासिल की है। इसी जीत को विधानसभा चुनावों में बरकरार रखने के लिए कई परियोजनाओं की झड़ी लगा दी गई है। कोलकाता की जीवन रेखा मानी जाने वाली मेट्रो के लिए ममता के पास 34 योजनाएँ हैं। 50 लोकल, 16 उप नागरी ट्रेन, 50 सब अर्बन गाडियाँ, मदर टेरसा, रवीन्द्रनाथविवेकानंद के नाम ट्रेन जैसी योजनाओ के जरिए ममता हर आम और खास तक पहुँच वामदलों के किले में सेंध की कोशिश में है, जहां 32 सालों से उनका आधिपत्य है। रेल बजट को चुनावी मेनिफेस्टो के रूप में प्रस्तुत कर ममता ने कोलकाता वासियों को खुश तो कर दिया लेकिन ममता की गाड़ी यहीं नहीं रुक रही। पश्चिम बंगाल से पहचान बनाने वाली ममता की तैयारी नॉर्थ ईस्ट से होते हुये पूरे भारत को हरे रंग में रंगने की है। मणिपुर, अरुणाचल, असम, मेघालया, त्रिपुरा, सिक्क्म, नागालैंड के राजधानी में तृणमूल काँग्रेस का दफ्तर खोल दीदी नॉर्थ ईस्ट में अपनी उपस्थिति पहले ही दर्ज करा चुकी है। बजट में मणिपुर को रेल कारख़ाना तथा नॉर्थ ईस्ट के कई राज्य तक रेल पहुंचा ममता रेल के साथ नॉर्थ ईस्ट में अपना राजनीतिक सफर को आगे बढ़ाने के प्रयास में है। बहरहाल ममता इस समय अपना पूरा ध्यान 16 अप्रैल से होने वाले बंगाल विधानसभा चुनाव में दे रही हैं। क्योंकि दिल्ली का रास्ता भी यहीं से साफ होता है।
    
ममता समझती हैं देश में महंगाई है इसलिए किराया न बढ़ाते हुये यात्रियों पर पड़ने वाले आर्थिक बोझ को कम किया है। 56 नई एक्सप्रेस, 9 दुरान्तो, 3 सताब्दी, 22 डी.एम.यू, 13 पैसेंजर के अलावा 33 ट्रेनों का विस्तार और यात्रियों के लिए मल्टीपर्पस स्मार्ट कार्ड की शुरुआत कर यात्रा सुविधाजनक बनाने के कोशिश जारी है । परंतु वर्तमान जर्जर एवं कमजोर पटरियों के भरोसे 103 नई ट्रेन को हरी झंडी दिखाई जाएगी। जिन पटरियों को 8 साल में बदल दिया जाना था उनपर 12 साल तक ट्रेनें दौड़ना क्या दुर्घटनाओं को खुला निमंत्रण नहीं है? ममता सामाजिक दायित्व निभाते हुये रेलवे स्टेशनों के किनारे झोपडी में रहने वालों को गृह सुखी योजना के तहत 10 हजार पक्के आशियाने उपलब्ध कराने का वादा कर अपने आप को गरीबों का सबसे बढ़ा हितैषी साबित करने की कोशिश में है। सीमा पर लड़नेवाले 16 हजार पूर्व सैनिकों को नौकरियाँ दे देश को रेल के मानवीय चेहरा से रु ब रु करने के प्रयास में है। देखना होगा कि पिछले 174 परियोजनाओं की तरह ये योजनाएँ भी सिर्फ हवाई दावे बनकर न रह जाए, बल्कि योजनाओं को अमली जामा पहनाना भी उन्ही के जिम्मे है। लालगढ़ ,सिंगूर, नंदीग्राम जैसे जनांदोलनों से किसान और आदिवासी नेता की छवि बना चुकी ममता अपनी राजनीतिक दायरे को राष्ट्रीय परिदृश्य में ले जाने की जुगत में है। इस क्रम में रेड कॉरीडोर (बस्तर, झारग्राम, गढ़चिरोली, जंगल महल, झारखंड) के नक्सल प्रभावित इलाकों तक रेल गाड़ियों का परिचालन कर किसानों, आदिवासियों को रेल के जरिए विकास का सफर कराने की कोशिश में है। लेकिन आशंका यह है कि आम आदमी के आड़ में रेल परियोजनाओं के जरिये इलाके की खनिज पदार्थों तक उद्योगपतियों की पहुँच आसान करने की कोशिश तो नहीं है? राजनीति के इस सफर में दीदी वामदलों को हर हाल है में चुनौती देने की तैयारी में है। दीदी किसी भी हाल में वाम दलों को सत्ता से बाहर देखना चाहती हैं।



इन सब से इतर रेल से रोज 1.5 करोड़ सफर करने वाले यात्री सिर्फ समय के दृष्टि से किफ़ायती और दुर्घटना रहित यात्रा करना चाहते है। मंत्री महोदया का कहना है, रेल दुर्घटनाओं में 15 प्रतिशत की कमी आई है। लेकिन पिछले साल 90 रेल दुर्घटनाओं में तीन सौ से ज़्यादा लोगों ने अपनी जान गवाई है। दुर्घटनाओं को कम करने के लिए मंत्री महोदया बजट में एंटि कोल्लिजन डिवाइस(ए.सी.डी), मानव रहित क्रोससिंग को खत्म, सिंगनल दुरस्त करने की बात कर रही हैं। 1991 में शुरू हुई ए.सी.डी तकनीक को हर रेल मंत्री अपने कार्यकाल में चालू करने का भरोसा देता है। साथ ही 45 करोड़ के लागत से तैयार एक ए.सी.डी को 9000 इंजनों में लगाना कितना प्रासंगिक है यह मंत्री महोदया खुद समझती हैं, वह भी जब ए.सी.डी की 100 प्रतिशत सफलता की गारंटी लेने को कोई तैयार नहीं है। आज टेक्नालजी इससे कहीं आगे निकल चुकी है। सुविधाओं की खबर ले तो गंदे प्लाटफार्म, भोजन की स्तर हीनता, गाड़ियों के डिब्बो में खचा-खच भीड़, समय सारणी का पालन ना होना, भारतीय रेल में आम बात हैं जिसकी कोई चर्चा आम आदमी के रेल बजट में नहीं की गई है। इन सब के बावजूद ममता दीदी इसे आम आदमी का बजट बता रही है। जानकारों की माने तो रेल से राजनीति साधी जाती है। ममता ने राजनीतिक लाभ के लिए रेल बजट को डीरेल किया। वहीं विपक्ष इसे बंगाल का रेल बजट बता रहा है। जो भी हो आम आदमी को मतलब इससे नहीं है कि ममता इस रेल बजट से अपनी राजनीतिक कैरियर में कितनी लंबी छलांग लगाती है उसे मतलब है तो सिर्फ इससे कि जब वह सफर करे तो ममता कि योजनाएँ बाथरूम के बाहर लेटी हुई न मिले।       
10 मार्च  2011 D.N.A LUCKNOW संस्करण में प्रकाशित

5 comments:

  1. Achchha Prayas!

    Please explain the reason, "294 विधानसभा सीटों वाले पश्चिम बंगाल में 45 योजनाएँ लागू कर दीदी प्रत्यक्ष रूप से 90 विधानसभा सीटों में अपनी पकड़ मजबूत कर रही हैं।"

    Should read the proof before posting...like ओध्योगिक, रविंदरनाथ, रजीनीतिक....

    Anyway, keep it up..Keep going..my best wishes.

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  2. शुक्रिया।
    दरअसल ये 90 सीटें वो हैं जहां सीपीएम की पकड़ मजबूत है और वैसे भी यह बात एक प्रतिकात्मक रूप से मैंने कही है यह तो बहुत साफ है ही की यह बजट बंगाल विधानसभा चुनावों को ध्यान में रख कर प्रस्तुत किया गया है फिर वो 90 सीटें हों या 294।

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  3. nice article...wid a great survey......

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  4. बाबला जी..विचारात्मक दृष्टिकोण से देखेँ तो लेख मेँ एक पत्रकार और आम नागरिक का आवेश तो दिखता है पर एक संतुलन का अभाव भी नजर आता है।समय और स्पेस का अभाव भी एक कारण हो सकता है पर क्या ही अच्छा होता अगर पिछले रेल मँत्रियोँ के कार्यकाल की तुलना उनके उस दौरान के चुनाव नतीजोँ से हो पाती। मुझे लगता है कि मात्र लोकलुभावन योजनाओँ से किसी राज्य के चुनावी समीकरण नहीँ बदलते।अगर आप तुलनात्मक दृष्टि से देखेँ तो पाएँगे कि किसी भी राज्य मेँ कैबिनेट स्तर के मँत्री की पार्टी का चुनाव जितना इसलिये मुश्किल हो जाता है क्योँकि उस व्यक्ति का राज्य विशेष की जनता से संपर्क या तो टूट जाता है अथवा कम हो जाता है(उदा्‌ यशवंत सिन्हा,शिबु सोरेन आदि)।और जहाँ तक मेरा मानना है,ममता बनर्जी जैसी जनता से जुड़ी हुई लीडर को,कम से कम इस चुनाव मेँ, रेल बजट की बैसाखी की जरूरत ना ही पड़े तो अच्छा हो।correct me if i am wrong.. Thx

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