Wednesday 29 June 2011

बोल के लब आज़ाद हैं तेरे ..........

वो नहीं बोलते हैं तो ख़बर है। बोलते हैं तो ख़बर है। लोकतंत्र में कोई प्रधानमंत्री बोलने जा रहा है, यह भी ख़बर है। ख़बर कम है। लोकतंत्र का अपमान ज़्यादा। क्या आप मान सकते हैं कि प्रधानमंत्री को बोलने नहीं आता है। फिर वो क्लास में अपने छात्रों को कैसे पढ़ाते होंगे। अधिकारियों के साथ मीटिंग करते वक्त तो बोलते ही होंगे। अपनी राय तो रखते ही होंगे। यह कैसे हो सकता है कि दुनिया भर के अनुभवों वाला एक शख्स रबर स्टाम्प ही बना रहे। विश्वास करना मुश्किल होता है। कोई ज़बरदस्ती चुप रह कर यहां तक नहीं पहुंच सकता। कुछ तो उनकी अपनी राय होगी,जिससे उनके धीमे सुर में ही सही बोलते वक्त लगता होगा कि आदमी योग्य है। वर्ना मुंह न खोलने की शर्त पर उनकी योग्य छवि कैसे बनी। मालूम नहीं कि ज़िद में आकर मनमोहन सिंह नहीं बोलते या उन्हें बोलने की इजाज़त नहीं है। दोनों ही स्थिति में मामला ख़तरनाक लगता है।

जिस मनमोहन सिंह की मुख्यधारा की मीडिया ने लगातार तारीफ़ की हो अब उन्हीं की आलोचना हो रही है। यूपीए वन में उनकी चुप्पी को लोग खूबी बताया करते थे। कहा करते थे कि ये प्रधानमंत्री भाषण कम देता है। दिन भर काम करता है। देर रात तक काम करता है। यूपीए वन के वक्त लोकसभा में विश्वासमत जीतने के बाद बाहर आकर विक्ट्री साइन भी बनाता है। जीत के उन लम्हों को याद कीजिए,फिर आपको नहीं लगेगा कि मनमोहन सिंह चुप रहने वाले शख्स होंगे। संपादकों की बेचैनी का कोई मतलब नहीं है। उन्हें बेवजह लगता है कि प्रधानमंत्री उनसे बात नहीं करते। इसलिए कई संपादकों ने लिखा कि वे बात क्यों नहीं कर रहे हैं। सवाल यही महत्वपूर्ण है कि कई मौकों पर प्रधानमंत्री देश से संवाद क्यों नहीं करते? अपना लिखित बयान भी जारी नहीं करते। अगर सवाल-जवाब से दिक्कत है तो लिखित बयान भी नियमित रूप से जारी किये जा सकते थे। जनता स्वीकार कर लेती। कहती कि अच्छा है प्रधानमंत्री कम बोलते हैं मगर बोलते हैं तो काम का बोलते हैं। लिखित बोलते हैं। यह भी नहीं हुआ। जबकि प्रधानमंत्री के पास मीडिया सलाहकार के रूप में एक अलग से दफ्तर है। क्या ये लोग यह सलाह देते हैं कि सर आप मत बोलिये। अगर सर नहीं बोल रहे हैं तो मीडिया सलाहकार तो बोल ही सकते हैं। कोई चुप रहने की सलाह दे रहा है या कोई न बोलने का आदेश,दावे के साथ कहना मुश्किल है मगर समझना मुश्किल नहीं।

लेकिन यह भी समझना चाहिए कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हमारी आपकी तरह किसी कंपनी की नौकरी नहीं कर रहे। देश के सबसे बड़े पद पर आसीन हैं। उसे छोड़ भी देंगे तो करदाताओं के पैसे से सरकार उन्हें ससम्मान रखेगी। वो एक बार पूरे टर्म प्रधानमंत्री रह चुके हैं। उनकी मजबूरियां समझ नहीं आतीं। कोई वजह नहीं है। तो क्या मान लिया जाए कि उन्हें किसी चीज़ से मतलब नहीं हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में यकीन नहीं है। जो मन करेगा, करेंगे। जो मन करेगा, नहीं बोलेंगे। हठयोग पर हैं मौनी बाबा। इनके गुरु रहे हैं पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव। वो भी नहीं बोलते थे। कल उनका जन्मदिन था। मनमोहन सिंह आंध्र भवन गए थे जहां नरसिम्हा राव की याद में कुछ कार्यक्रम हुआ था। जिस राव को कांग्रेस में कोई पसंद नहीं करता, उससे रिश्ता निभाने का सार्वजनिक प्रदर्शन करने वाले मनमोहन सिंह के बारे में क्या आप कह सकते हैं कि वे दब्बू हैं। लगता नहीं है। उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में विश्वास कम है। शायद इसीलिए वे पिछले साल सितंबर के बाद आज के दिन देश के पांच संपादकों से मिलेंगे। टीवी वालों से नहीं मिला। पिछली बार फरवरी में न्यूज़ चैनलों के संपादकों,संवाददाताओं से मुलाकात की थी। इस बार लंबी चुप्पी के बाद टीवी को पहले चांस नहीं मिला। वो इस डर से भी कि अगर ऐसा हुआ तो टीवी वाले दिन भर बवाल काटेंगे। हर भाव, हर मुद्रा पर चर्चा कर डालेंगे। कुल मिलाकर मनमोहन सिंह की एक कमज़ोर छवि ही निकलेगी। अब अखबार के संपादकों से सवाल तो यही सब पूछे जायेंगे। यही कि क्या मनमोहन सिंह आहत हैं? क्या कहा उन्होंने न बोलने के फैसले पर? क्या वो देश के काम में लगे हैं? अगर दिन रात काम में ही लगे हैं तो देश की हालत ऐसी क्यों हैं? जनता फटीचर हालत में क्यों हैं?

क्या यह शर्मनाक नहीं है कि कांग्रेस की कार्यसमिति में प्रधानमंत्री के सामने उनके सहयोगी राजनेता यह सुझाव दें कि आप बोला कीजिए। आप कम बोलते हैं। या तो आप राष्ट्र के नाम संदेश दे दें या फिर मीडिया से बात कर लें। अभी तक विपक्ष ही बोलता था कि प्रधानमंत्री नहीं बोलते हैं। अब उनकी पार्टी के लोग ही बोलने लगे हैं। हद है ये तो बोलते ही नहीं हैं। तो क्या यह दलील पूरी तरह सही है कि वे पार्टी के दबाव में नहीं बोलते हैं। फिर पार्टी के लोग यह मांग क्यों करते हैं? फिर उनके सहयोगी गृहमंत्री पी चिदंबरम एनडीटीवी की सोनिया वर्मा सिंह के इंटरव्यू में खुलेआम बोलकर जाते हैं कि चुप रहना उनका स्टाइल है मगर मुझे भी लगता है कि प्रधानमंत्री को कुछ ज्यादा संवाद करना चाहिए। थक हार कर जब वे नहीं बोले तो सरकार ने मीडिया से बोलने के लिए पांच मंत्रियों का समूह बना दिया। पिछले रविवार अर्णब गोस्वामी के वर्सेस कार्यक्रम में आउटलुक के संपादक विनोद मेहता ने सलमान खुर्शीद की क्लास ले ली। कह दिया कि इन पांच मंत्रियों ने अन्ना के मामले में जिस तरह से मीडिया को हैंडल किया है वो पब्लिक रिलेशन के कोर्स में डिज़ास्टर के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए। ज़ाहिर है प्रधानमंत्री पर दबाव कम है। दबाव की बातों में अतिशयोक्ति है। नहीं बोलने का उनका फैसला अपना है। ज़िद है। वर्ना बोलने को लेकर विवाद इसी महीने से तो नहीं शुरू हुआ न। वो तो कॉमनवेल्थ के समय से ही चल रहा है।

मनमोहन सिंह को लगता ही नहीं कि लोकतंत्र में संवाद ज़रूरी है। इसलिए वो नहीं बोलते हैं। पिछले कुछ महीनों से कई बड़े संपादकों ने शनिचर-एतवार के अपने कॉलमों में इसकी आलोचना की और सुझाव दिये कि कैसी सरकार है। न काम कर पा रही है न बोल पा रही है। सिर्फ चली जा रही है। अटल बिहारी वाजपेयी तो चलते-चलते बात कर लेते थे। अटलजी-अटलजी की आवाज़ आती थी,वो प्रेस की तरफ मुड़ जाते थे। कुछ तंज,कुछ रंज और कुछ व्यंग्य कर के चले जाते थे। वो छोटे-मोटे समारोहों में भी जाते रहते थे। वहां कुछ न कुछ बोल आते थे। हर साल शायद पहली तारीख को उनके विचार आ जाते थे। अटल म्यूज़िंग। कितना बोलें और कब बोलें,यह प्रधानमंत्री का अपना फैसला होना चाहिए। मगर कभी बोलेंगे ही नहीं तो इस पर जनता को फैसला कर लेना चाहिए। पिछले पंद्रह साल के मीडिया कवरेज का इतिहास निकालिये। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हिस्से में सिर्फ तारीफ ही आई है। पिछले पंद्रह महीनों के मीडिया कवरेज का इतिहास निकाल कर देखिये,मनमोहन सिंह के हिस्से में सिर्फ आलोचना ही आई है। हमारा समाज चुप रहने वालों को धीर गंभीर कहता है मगर यहां तो मनमोहन सिंह इतने चुप हो गए कि अब लोग इस चुप्पी को अड़ना समझने लगे हैं.
साभार -रविश कुमार

Sunday 26 June 2011

स्वास्थ्य के बारे में सोचें, नशे को न कहें ......

मादक पदार्थों व नशीली वस्तुओं के निवारण हेतु संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 7 दिसंबर, 1987 को प्रस्ताव संख्या 42/112 पारित कर हर वर्ष 26 जून को अंतर्राष्ट्रीय नशा व मादक पदार्थ निषेध दिवस मानाने का निर्णय लिया. यह एक तरफ लोगों में चेतना फैलाता है, वहीँ नशे के लती लोगों के उपचार की दिशा में भी सोचता है.इस वर्ष का विषय है- ''स्वास्थ्य के बारे में सोचें, नशे को न कहें." आजकी पोस्ट इसी विषय पर-

मादक पदार्थों के नशे की लत आज के युवाओं में तेजी से फ़ैल रही है. कई बार फैशन की खातिर दोस्तों के उकसावे पर लिए गए ये मादक पदार्थ अक्सर जानलेवा होते हैं. कुछ बच्चे तो फेविकोल, तरल इरेज़र, पेट्रोल कि गंध और स्वाद से आकर्षित होते हैं और कई बार कम उम्र के बच्चे आयोडेक्स, वोलिनी जैसी दवाओं को सूंघकर इसका आनंद उठाते हैं. कुछ मामलों में इन्हें ब्रेड पर लगाकर खाने के भी उदहारण देखे गए हैं. मजाक-मजाक और जिज्ञासावश किये गए ये प्रयोग कब कोरेक्स, कोदेन, ऐल्प्राजोलम, अल्प्राक्स, कैनेबिस जैसे दवाओं को भी घेरे में ले लेते हैं, पता ही नहीं चलता. फिर स्कूल-कालेजों य पास पड़ोस में गलत संगति के दोस्तों के साथ ही गुटखा, सिगरेट, शराब, गांजा, भांग, अफीम और धूम्रपान सहित चरस, स्मैक, कोकिन, ब्राउन शुगर जैसे घातक मादक दवाओं के सेवन की ओर अपने आप कदम बढ़ जाते हैं. पहले उन्हें मादक पदार्थ फ्री में उपलब्ध कराकर इसका लती बनाया जाता है और फिर लती बनने पर वे इसके लिए चोरी से लेकर अपराध तक करने को तैयार हो जाते हैं.नशे के लिए उपयोग में लाई जानी वाली सुइयाँ HIV का कारण भी बनती हैं, जो अंतत: एड्स का रूप धारण कर लेती हैं. कई बार तो बच्चे घर के ही सदस्यों से नशे की आदत सीखते हैं. उन्हें लगता है कि जो बड़े कर रहे हैं, वह ठीक है और फिर वे भी घर में ही चोरी आरंभ कर देते हैं. चिकित्सकीय आधार पर देखें तो अफीम, हेरोइन, चरस, कोकीन, तथा स्मैक जैसे मादक पदार्थों से व्यक्ति वास्तव में अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है एवं पागल तथा सुप्तावस्था में हो जाता है। ये ऐसे उत्तेजना लाने वाले पदार्थ है जिनकी लत के प्रभाव में व्यक्ति अपराध तक कर बैठता है। मामला सिर्फ स्वास्थ्य से नहीं अपितु अपराध से भी जुड़ा हुआ है. कहा भी गया है कि जीवन अनमोल है। नशे के सेवन से यह अनमोल जीवन समय से पहले ही मौत का शिकार हो जाता है।

संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया में भारत हेरोइन का सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है और ऐसा लगता है कि वह खुद भी अफीम पोस्त का उत्पादन करता है. गौरतलब है कि अफीम से ही हेरोइन बनती है. अपने देश के कुछ भागों में धड़ल्ले से अफीम की खेती की जाती है और पारंपरिक तौर पर इसके बीज 'पोस्तो' से सब्जी भी बने जाती है. पर जैसे-जैसे इसका उपयोग एक मादक पदार्थ के रूप में आरंभ हुआ, यह खतरनाक रूप अख्तियार करता गया. वर्ष 2001 के एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण में भारतीय पुरुषों में अफीम सेवन की उच्च दर 12 से 60 साल की उम्र तक के लोगों में 0.7 प्रतिशत प्रति माह देखी गई. इसी प्रकार 2001 के राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार ही 12 से 60 वर्ष की पुरुष आबादी में भांग का सेवन करने वालों की दर महीने के हिसाब से तीन प्रतिशत मादक पदार्थ और अपराध मामलों से संबंधित संयुक्त राष्ट्र कार्यालय [यूएनओडीसी] की रिपोर्ट के ही अनुसार भारत में जिस अफीम को हेरोइन में तब्दील नहीं किया जाता उसका दो तिहाई हिस्सा पांच देशों में इस्तेमाल होता है। ईरान 42 प्रतिशत, अफगानिस्तान सात प्रतिशत, पाकिस्तान सात प्रतिशत, भारत छह प्रतिशत और रूस में इसका पांच प्रतिशत इस्तेमाल होता है। रिपोर्ट के अनुसार भारत ने 2008 में 17 मीट्रिक टन हेरोइन की खपत की और वर्तमान में उसकी अफीम की खपत अनुमानत: 65 से 70 मीट्रिक टन प्रति वर्ष है। कुल वैश्विक उपभोग का छह प्रतिशत भारत में होने का मतलब कि भारत में 1500 से 2000 हेक्टेयर में अफीम की अवैध खेती होती है, जो वाकई चिंताजनक है.

नशे से मुक्ति के लिए समय-समय पर सरकार और स्वयं सेवी संस्थाएं पहल करती रहती हैं. पर इसके लिए स्वयं व्यक्ति और परिवार जनों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण है. अभिभावकों को अक्सर सुझाव दिया जाता है कि वे अपने बच्चों पर नजर रखें और उनके नए मित्र दिखाई देने, क्षणिक उत्तेजना या चिडचिडापन होने, जेब खर्च बढने, देर रात्रि घर लौटने, थकावट, बेचैनी, अर्द्धनिद्राग्रस्त रहने, बोझिल पलकें, आँखों में चमक व चेहरे पर भावशून्यता, आँखों की लाली छिपाने के लिए बराबर धूप के चश्मे का प्रयोग करते रहने, उल्टियाँ होने, निरोधक शक्ति कम हो जाने के कारण अक्सर बीमार रहने, परिवार के सदस्यों से दूर-दूर रहने, भूख न लगने व वजन के निरंतर गिरने, नींद न आने, खांसी के दौरे पड़ने, अल्पकालीन स्मृति में ह्रास, त्वचा पर चकते पड़ जाने, उंगलियों के पोरों पर जले का निशान होने, बाँहों पर सुई के निशान दिखाई देने, ड्रग न मिलने पर आंखों-नाक से पानी बहने-शरीर में दर्द-खांसी-उल्टी व बेचैनी होने, व्यक्तिगत सफाई पर ध्यान न देने, बाल-कपड़े अस्त व्यस्त रहने, नाखून बढे रहने, शौचालय में देर तक रहने, घरेलू सामानों के एक-एक कर गायब होते जाने आदत के तौर पर झूठ बोलने, तर्क-वितर्क करने, रात में उठकर सिगरेट पीने, मिठाईयों के प्रति आकर्षण बढ जाने, शैक्षिक उपलब्धियों में लगातार गिरावट आते जाने, स्कूल कालेज में उपस्थिति कम होते जाने, प्रायः जल्दबाजी में घर से बाहर चले जाने एवं कपडों पर सिगरेट के जले छिद्र दिखाई देने जैसे लक्षणों के दिखने पर सतर्क हो जाएँ. यह बच्चों के मादक-पदार्थों का व्यसनी होने की निशानी है. यही नहीं यदि उनके व्यक्तिगत सामान में अचानक माचिस,मोमबत्ती,सिगरेट का तम्बाकू, 3 इंच लम्बी शीशे की ट्यूब,एल्मूनियम फॉयल, सिरिंज, हल्का भूरा सफेद पाउडर मिलता है तो निश्चित जान लें कि वह ड्रग्स का शिकार है और तत्काल इस सम्बन्ध में कदम उठाने की जरुरत है.

मादक पदार्थों और नशा के सम्बन्ध में जागरूकता के लिए तमाम दिवस, मसलन- 31 मई को अंतर्राष्ट्रीय धूम्रपान निषेध दिवस, 26 जून को अंतर्राष्ट्रीय नशा व मादक पदार्थ निषेध दिवस, गाँधी जयंती पर 2 से 8 अक्टूबर मद्यनिषेध सप्ताह और 18दिसम्बर को मद्य निषेध दिवस के रूप में हर साल मनाया जाता है. मादक पदार्थों का नशा सिर्फ स्वास्थ्य को ही नुकसान नहीं पहुँचाता बल्कि सामाजिक-आर्थिक-पारिवारिक- मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी इसका प्रभाव परिलक्षित होता है. जरुरत इससे भागने की नहीं इसे समझने व इसके निवारण की है. मात्र दिवसों पर ही नहीं हर दिन इसके बारे में सोचने की जरुरत है अन्यथा देश की युवा पीढ़ी को यह दीमक की तरह खोखला कर देगा.
साभार - शब्द-शिखर 

Friday 24 June 2011

माओवाद से आगे जाते आंदोलन......


अगर अल्ट्रा लेफ्ट यानी नक्सलवाद से लेकर माओवाद हिंसा की जगह अहिंसा की शक्ल में आये तो उसका चेहरा क्या होगा। जाहिर है हिंसा का मतलब है व्यवस्था परिवर्तन के लिये पहले सत्ता परिवर्तन ही है। जिसमें राज्य से दो-दो हाथ करने की स्थिति आती ही है। और नक्सलवाद से लेकर माओवाद का चेहरा चाहे किसान-आदिवासी के सवाल को लेकर खड़ा हो या नयी परिस्थितियों में जमीन से लेकर विकास की बाजारवादी सोच को मुद्दा बनाकर संघर्ष की स्थिति पैदा करने वाला हो, लेकिन शुऱुआत सत्ता परिवर्तन से ही होती है। जबकि अहिंसा का मतलब है सिर्फ व्यवस्था परिवर्तन।

यानी यहां चल रही सत्ता को सिर्फ इतनी ही चेतावनी दी जाती है कि जो व्यवस्था उसने अपनायी हुई है वह सही नहीं है। और संघर्ष का यह चेहरा व्यवस्था परिवर्तन उसी घेरे में चाहता है, जिसमें सत्ता चल रही है। लेकिन,इस व्यवस्था परिवर्तन के संघर्ष को क्या अल्ट्रा लेफ्ट यानी नक्सलवाद से माओवाद की किसी श्रेणी में अगर नही रखा जा सकता, तो इसका किस रूप में मान्यता दी जाये। असल में अन्ना हजारे और बाबा रामदेव का संघर्ष, मुद्दों को लेकर सत्ता को चेताने वाले संघर्षों में एक नया सवाल है।

यहां यह कहा जा सकता है कि भ्रष्‍टाचार और कालेधन के मुद्दे, संसदीय राजनीति ने भी उठाये हैं। और अन्ना हजारे या बाबा रामदेव के सवाल चुकी हुई संसदीय राजनीति पर महज एक सवालिया निशान भर है। लेकिन, संसदीय राजनीति ने हमेशा चुनावी राजनीति को महत्ता दी। संसद को हर मुद्दे के समाधान का रास्ता करार दिया। जवाहरलाल नेहरु पर लोहिया ने जब भ्रष्‍टाचार के आरोप जड़े, तो गैर कांग्रेसवाद से आगे संघर्ष की लकीर ना खिंच सकी। इंदिरा गांधी की सत्ता के भ्रष्ट तौर-तरीकों को लेकर जब जेपी ने आंदोलन की शुरुआत की, तो भी कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ विरोधी राजनीतिक दलों का एक मंच जनता पार्टी के तौर पर निकला। वीपी सिंह ने भी जब बोफोर्स घोटाले के घेरे में राजीव गांधी की सत्ता को घेरा, तो भी संसदीय राजनीति के घेरे में ही सत्ता परिवर्तन का ही चेहरा समूचे संघर्ष में उभरा। लेकिन, अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने चाहे संसदीय राजनीति में उठ चुके सवालों को मुद्दों में बदला, लेकिन पहली बार उसका रास्ता भी संसदीय राजनीति से इतर खोजने की सोच भी पैदा की।

सत्ताधारी दल के तार भ्रष्टाचार से जुड़ने के बाद कालेधन के जरिये संसदीय राजनीति का खेल कैसे खेला जाता है,यह सवाल भी उठा। और पहली बार तमाम राजनीतिक दलों के सामने यह बड़ा सवाल गूंजा कि अगर संसदीय चुनावी राजनीति का चेहरा ही पूंजी पर टिका है और पूंजी का मतलब भ्रष्टाचार या कालेधन को प्रश्रय देना है, तो फिर मुद्दा चाहे पुराना हो, लेकिन उसके सवाल नये हैं और रास्ता भी नया खोजना जरूरी है। असल में यह समझ आंदोलन के बीच में सत्ताधारी दल से लेकर तमाम राजनीतिक दलों की आपसी एकजुटता से भी निकली और आंदोलन से टकराव ने भी इन सवालों को जन्म दिया। खासकर सिविल सोसायटी ने जन- लोकपाल कानून के जरिये जिस तरह कानून पर टिके संसदीय लोकतंत्र पर ही सवालिया निशान लगाया।

लोकतंत्र का नारा लगाते संसदीय दलों को भी समझ नही आया कि जो काम संसद को करना है अगर उसका मसौदा संसद के बाहर तय होने लगे, उस पर बहस बिना राजनीतिक दलों की शिरकत के होने लगे, अगर सडक पर संसद के तौर-तरीको को लेकर आम आदमी संघर्ष की शक्ल में अपनी सहमति सिविल सोसायटी को लेकर देने लगे, तो फिर चुनावी लोकतंत्र पर देश ठहाके नहीं लगायेगा तो और क्या करेगा। और अगर ऐसा होगा तो फिर आंदोलन की बोली भी व्यवस्था परिवर्तन की ऐसी लकीर खिंचने वाली होगी जिसमें यह तयकर पाना वाकई मुश्किल होगा कि संघर्ष सिर्फ वयवस्था के तौर-तरीको को बदलने वाला है या फिर सत्ता की नुमाइन्दगी करने के लिये बैचैन राजनीतिक दलों के खिलाफ संघर्ष की मुनादी हो रही है। यानी जो नक्सलवाद से लेकर माओवाद के नारे नक्सलबाडी से लेकर तेलागांना और हाल के दिनों में बस्तर से लेकर नंदीग्राम और लालगढ़ में सुनायी दिये वही अहिंसा की आवाज की शक्ल में दिल्ली के जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान और आखिर में राजघाट तक भी सुनायी पड़े। क्योंकि दिल्ली के इन लोकतांत्रिक मंचो को संसदीय लोकतंत्र ने ही खुद को लोकतांत्रिक बताने-ठहराने के लिये बनाया है, तो यहां की आवाज में विरोध के स्वर विद्रोह के नहीं लगते है। और इससे पहले इसी का जश्न संसदीय सत्ता मनाती आयी है और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दंभ भी भरती रही है।

लेकिन पहली बार अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने उन्हीं प्रतीकों को जड़ से पकड़ा। कहा यह भी जा सकता है कि खेल - खेल में संसदीय लोकतंत्र के यह प्रतीक पकड़ में आ गये। रामदेव का मतलब चूंकि रामलीला मैदान रहा और रामलीला मैदान जेपी से लेकर वीपी तक के संघर्ष की मुनादी स्थल रहा है। संघ परिवार की दस्तक खुले तौर पर नजर आने के बाद संसदीय सत्ता रामलीला मैदान के जरिये संघ परिवार के भगवापन को रामदेव के बाबापन से जोड़कर अपने उपर उठने वाली अंगुली को सियासी दांव तले दबा सकती है। चूंकि बाबा रामदेव की रामलीला का जुड़ाव भी आस्था और भगवा रहस्य में ज्यादा खोया रहा, इसलिये इस संघर्ष को राजनीतिक तीर बनाने में सफलता कितनी किस रूप में मिलती यह तो दूर की गोटी है।

लेकिन रामलीला मैदान में संसदीय राजनीतिक दलों की अलोकतांत्रिक भूमिका को लेकर जो सवाल बाबा रामदेव ने उठाये और जिस तरह व्यवस्था परिवर्तन की बात कहते हुये सत्ता के तौर-तरीकों पर परोक्ष-अपरोक्ष तौर पर निशाना साधा। कैबिनेट, रामदेव मंत्रियों से रामदेव की हुई बातचीत को भी कितना जनविरोधी करार करने के लिये दबाव बना रही है, इसे सार्वजनिक मंच पर जिस तेवर से कहा, उसमें यह सवाल कोई भी पूछ सकता है कि अगर यह तेवर कोई माओवादी दिखाता तो वह राष्ट्रविरोधी करार दिया जा सकता था। वही अन्ना हजारे की जंतर-मंतर की सभा हो या राजघाट की, दोनों जगहों पर ना सिर्फ मंच से बल्कि सार्वजनिक तौर अलग-अलग सामाजिक संगठनो से लेकर निजी पहल करते आम शहरी मध्यम वर्ग ने प्ले-कार्ड से लेकर नारों की शक्ल में जो-जो कहा, अगर उस पर गौर करें तो नंदीग्राम से लेकर बस्तर तक में जो आवाज सत्ता के खिलाफ जिन शब्दों को लेकर उठती है, उससे कहीं ज्यादा तल्खी इनकी आवाजों में थी। शब्दों में थी। खासकर विकास का जो खांचा 1991 के बाद से देश में आर्थिक सुधार के नाम पर अपनाया जा रहा है, उसका चेहरा ही भ्रष्ट है तो फिर भ्रष्टाचार पर नकेल कैसे कसी जा सकती है।

यह सवाल भी सिविल सोसायटी ने उठाया। और इस दौर में माओवाद के राजनीतिक घोषणा पत्र में जब समूची विकास प्रक्रिया को ही चंद हथेलियों में पूंजी समेटने वाला करार दिया है, उसी भाषा में भ्रष्टाचार पर फंदा भी अन्ना हजारे ने कसे। इतना ही नही, किसानों,आदिवासियों के जिन मुद्दों को लेकर नंदीग्राम में आग सुलगी और वामपंथियों को कटघरे में खड़ा किया गया उसी तरह सिविल-सोसायटी ने भी जनलोकपाल की बैठकों में सरकार पर यह कहकर नकेल कसी कि इसके दायरे में किसी को भी बख्शने का मतलब होगा भ्रष्टाचार करने का लाईसेंस देना। वामपंथियों ने सत्ता पर रहते हुये ममता बनर्जी पर यही सवाल उठाये थे कि जब जनता ने उन्हें चुना है तो वह जनता के खिलाफ कैसे जा सकते हैं और फैसला भी जनता को ही करना होगा।

जाहिर है बंगाल में वामपंथियों के विकल्प के लिये ममता उसी रास्ते पर खड़ी थी जिसे वामपंथियो ने चुना था। संसदीय चुनाव का रास्ता। और बंगाल में तो कानून के लिये राष्ट्रविरोधी माओवादी भी चुनाव के जरिये परिवर्तन के पक्ष में थे। लेकिन दिल्ली में सिविल सोसायटी ने तो अल्ट्रा लेफ्ट या कहे माओवादियों से भी आगे के सवाल सरकार के साथ एक ही टेबल पर बैठ कर उठा दिये। असल में पहली बार सबसे बड़ा सवाल देश के लिये यही खड़ा हो रहा है कि क्या संसदीय राजनीति अपनी भूमिका निभा चुका है। क्या संसदीय राजनीति के सरोकार आम आदमी से पूरी तरह खत्म हो चुके है। क्या समूची चुनावी प्रक्रिया को देश का शहरी वर्ग धोखा मान चुका है। यह सारे सवाल इसलिये जरूरी हैं क्योंकि सिविल सोसायटी के उठाये सवाल इससे पहले नक्सली या माओवादी भी नहीं कह पाये।

उन्होंने व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कर सत्ता परिवर्तन की बात कही। लेकिन अन्ना हजारे के सवाल तो सीधे प्रधानमंत्री और देश के मुख्य न्यायाधीश को भी यह कहते हुये कटघरे में खडा कर रहे हैं कि अगर यह जन लोकपाल के दायरे में नहीं आये तो भ्रष्टाचार करने के इन्हे ही मंच बना लिया जायेगा। यानी सरकार को जिस मंत्रालय में बड़ा घोटाला करना है वह मंत्रालय प्रधानमंत्री अपने पास रखेंगे। इसी तरह चीफ जस्टिस आफ इंडिया के फैसलों के जरिये सरकार अपनी सहूलियत के अनुसार कानून बनाने या कानून बिगाड़ने से नहीं हिचकेगी। क्या यह बात कहकर माओवादी इससे बच सकता है कि सरकार उसे राष्ट्रविरोधी ना करार दे।

जाहिर है माओवाद का मतलब हिंसा है। और अन्ना हजारे राजघाट पर बैठकर गांधी और भगत सिंह का ऐसा मिश्रण बना रहे हैं, जिसके घेरे में संसदीय राजनीति के शुद्धीकरण का सवाल उठेगा ही। और कानूनी तौर पर सरकार के सामने इन्हें रोकने के लिये आपातकाल सरीखा वातावरण बनाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता बचता नहीं है। जिसे सरकार ला नहीं सकती है। लेकिन, इन्हें रोक भी नहीं सकती है। तो क्या यह माना जा सकता है कि जिस मध्यवर्ग को माओवादी या अल्ट्रा-लेफ्ट शहरी बुर्जुआ कहकर खारिज करता रहा है, नयी परिस्थितियों में यही शहरी मध्यवर्ग अब सत्ता में अपने हक को उसी तरह खोज रहा है जैसे किसान, मजदूर, आदिवासियों के हक की बात नक्सलवादी से लेकर माओवादी करते रहे हैं। और किसी अल्ट्रा-लेफ्ट संगठन के महासचिव की जगह गांधी टोपी पहले अन्ना हजारे आंदोलन के एक नये प्रतीक बन गये हैं। जिससे टकराया कैसे जाये या संसदीय सत्ता किस तरह इन्हें खारिज करें यह रास्ता फिलहाल ना तो सरकार के पास है ना ही संसदीय राजनीति के पास।

लेकिन, 1948 के किसान आंदोलन से लेकर नक्सलबाड़ी होते हुये तेलागंना, बस्तर और नंदीग्राम में जो लकीर खिंची उसी सोच को राष्ट्रीय पटल पर सामूहिकता का बोध लिये सामाजिक आंदोलन की नयी जमीन पहली बार बदलने का संकेत भी दे रही है और बदलते संकेत में संसदीय सत्ता को भी चेता रही है कि कोई रास्ता उसने नहीं निकाला गया, तो देश में आंदोलन सत्ता की धारा बदल भी सकते है। यह संकेत अभी सांकेतिक हैं, लेकिन कल बदलाव की लकीर भी खिंच सकती है और इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।


Friday 17 June 2011

क्यों कॉमर्स का कट ऑफ ज़्यादा होता है?


क्या  यह सही है कि कॉमर्स एक विधा नहीं है? एकेडमिक डिसिप्लिन। सांख्यिकी,अर्थशास्त्र और गणित जैसे कई विषयों को मिला कर वाणिज्य विषय को गढ़ा गया है। इस पर आपके पास जानकारी हो तो ज़रूर शेयर करें लेकिन कुछ लोगों से बात करने पर यही पता चला कि बाहर के मुल्कों में भी ऑनर्स कोर्स में कॉमर्स नाम का विषय नहीं होता है। अगर यह जानकारी ग़लत पाई गई तो मैं अपने लेख में संशोधन कर लूंगा। बहरहाल इस बात पर विचार करना चाहिए कि कॉमर्स के लिए इतनी मारा मारी क्यों हैं?

दिल्ली विश्वविद्लाय में कॉमर्स में दाखिला लेने के लिए कामर्स विषय वालों को प्राथमिकता दी जाती है। उन्हें सीट मिले इसलिए दूसरे विषय यानी साइंस से जब कोई बच्चा कॉमर्स में आता है तो उसे हतोत्साहित करने के लिए अधिक नंबर मांगे जाते हैं ताकि कॉमर्स वालों को पहले एडमिशन मिल जाए। इसी तरह से जब कॉमर्स के बच्चे दूसरे विषयों में दाखिला लेने जाते हैं तो उनके नंबर में दो से तीन परसेंट की कमी कर दी जाती है ताकि उन्हें इतिहास,गणित या अन्य विषयों में आने से रोक सकें। इसके पीछे सोच यही है कि कॉमर्स पढ़ने वालों की ट्रेनिंग अकादमिक नहीं होती। वे इतिहास या राजनीति शास्त्र में आकर अच्छा नहीं कर पाते हैं क्योंकि उन्हें लंबे-लंबे लेख पढ़ने का अभ्यास नहीं होता। दिलचस्पी बनने में काफी वक्त लग जाता है। अपवाद के तौर पर कुछ ही बच्चे कॉमर्स से इतिहास या समाजशास्त्र में आकर बेहतर कर पाते हैं। इसीलिए कॉमर्स कॉलेजों की ज़िम्मेदारी हो जाती है कि वे पहले अपने विषय के बच्चों का दाखिला करें। इसीलिए एसआरसीसी और एलएसआर में कटऑफ ज़्यादा होता है। कॉमर्स के अच्छे कॉलेज कम है और रोज़गारपरक बाज़ारू शिक्षा के नाम पर कम पढ़ने लिखने वाले छात्रों की तादाद ज्यादा। ऐसा विषय हो जो नौकरी भी दे और थोड़ा-थोड़ा सारे विषयों को पढ़ने का अवसर भी दे दे। कॉमर्स से अच्छा कोई विकल्प नहीं है। बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन, मैनेजमेंट और बैंकों की नौकरियों में कामर्स काफी उपयोगी विषय हो गया है।

अब रही बात कि इस साल सौ परसेंट वाला कट ऑफ क्यों गया? वो इसलिए कि सिब्बल साहब और वाइस चांसलर साहब दिल्ली विश्वविद्यालय को कबाड़ करने के अभियान में लगे हुए हैं। सेमेस्टर सिस्टम के अलावा इस बार दाखिले की प्रक्रिया में बदलाव हुआ। पहले क्या होता था? पहले बच्चे फार्म भरते थे। हालांकि इसे लेकर कॉलेज दुकानदारी करने लगे थे। खैर फार्म भरने के बाद अमुक विभाग को अंदाज़ा हो जाता था कि पहले लिस्ट में कितने बच्चों को आने दिया जाए। इस बार यह व्यवस्था खत्म कर दी गई। यह कहा गया कि जो भी कट ऑफ निकलेगा उसमें आने वाले सभी बच्चों को दाखिला देना पड़ेगा। अगर चालीस सीट है और कट ऑफ के बाद सौ बच्चे आ गए तो सौ के सौ को दाखिला देना होगा। अब यहां सुविधाओं और टीचर-छात्र के अनुपात का सवाल गया चूल्हे में। तो किसी भी कॉलेज को इस बार पहले से मालूम नहीं था कि अमुक विषय में कितने कट ऑफ वाले बच्चों ने अप्लाई किया है। इसलिए उन्होंने कट ऑफ को इतना ज्यादा कर दिया कि पहले लिस्ट में उन्हें अंदाज़ा हो सके। सिर्फ इसकी वजह से बच्चों को परेशानियां झेलनी पड़ गईं।

पढ़ाई माइग्रेशन का दूसरा बड़ा कारण है। देश भर के कॉलेज कबाड़ हो गए हैं। अगर नहीं भी हैं तो उन्हें अच्छे विद्यार्थी कबाड़ ही समझने लगे हैं। दिल्ली में पढ़ने के साथ प्रतिष्ठा का भी भाव जुड़ा होता है। राज्यों ज़िलों के कॉलेजों में कुछ अच्छे और प्रयत्नशील शिक्षकों को छोड़ दें तो बाकी सब राम भरोसे आते हैं और राम भरोसे चले जाते हैं। हम इस विषय को लेकर परेशान इसलिए नहीं होते कि फायदा नहीं। उससे पहले ट्रेन का टिकट कटा लेते हैं। मैं भी इसी सिस्टम के तहत रातों रात अपने कमरे से उजाड़ कर दिल्ली भेज दिया गया। राज्यों के अच्छे कालेजों के कट ऑफ पता कर रहा था। कहीं भी सत्तर अस्सी फीसदी से ज्यादा नंबर नहीं जाता। उनके ख़राब कालेजों में औसत विद्यार्थियों की भरमार है। ९८ परसेंट वाले इन कॉलेजों को किसी लायक नहीं समझते। यह चिन्ताजनक हालात है। कपिल सिब्बल दिल्ली के दो कालेज के कट ऑफ पर बयान तो दे देते हैं मगर बाकी कालेजों के लिए वक्त नहीं। पता कीजिए देश का मानव संसाधन मंत्री पिछले कुछ सालों में कितने केंद्रीय विश्वविद्यालयों के दौरे पर गया है। उनके कामकाज की समीक्षा की है। वकील हो जाने से हर मुकदमे के जीत लेने की गारंटी नहीं मिल जाती। दलील बर्तन बजाने से नहीं बजती, उसके आधार भी होने चाहिएं।
--साभार कस्बा 

Tuesday 7 June 2011

सेकुलर बनाम सांप्रदायिकता का ट्वेंटी ट्वेंटी

कांग्रेस ने चालाकी से भ्रष्टाचार के मुद्दे को धर्मनिरपेक्ष बनाम सांप्रदायिक में बदल दिया है। रामदेव को मिठाई खिलाने से लेकर पिटाई तक के सफर में कांग्रेस अपनी कमज़ोरी को मर्दाना ताकत की दवाओं से दूर कर देने के लिए बेबस नज़र आई। दिल्ली आने से पहले रामदेव ने कहा था कि मुझे आरएसएस का समर्थन प्राप्त है। कभी नहीं कहा कि मैं आरएसएस से दूर हूं। रामदेव सरकार के दबाव में कहने लगे कि यह मंच राजनीतिक नहीं है। राजनीतिक काम करने वाले संघ को सामाजिक बता कर कब एनजीओ में बदल दिया जाता है ये सब भगवा दल की मर्ज़ी पर निर्भर करता है। साधु सियासत में रंग लगाने आते और भांग घोल कर चले जाते हैं। मंदिर मुद्दे पर लुट-पिट जाने के बाद सत्ता संघर्ष में वापसी के लिए बेचैन सन्यासी दल रामदेव को सहारा बना रहे थे। शनिवार को रामलीला मैदान में मंच से धार्मिक बयान दिये जा रहे थे। भारत महान की भगवा व्याख्या होने लगी। हरिद्वार के भारत माता मंदिर ट्रस्ट के किसी भगवा प्रमुख ने कहा कि वे महाभारत के किस्से तो पढ़ते हैं मगर आज सचमुच के महाभारत में शामिल होने आए हैं। कहीं से इन सबके दिमाग में है कि प्राचीन भारत की जड़ों में सन्यासियों का पसीना है। उनके आशीर्वाद और प्रताप से प्राचीन भारत विश्वविजेता था और अगर ये मिलकर एक मंच पर आ जायें तो भारत फिर से विश्वविजेता हो जाएगा। विश्वविजेता वाली अवधारणा ही कुंठित मनों की बुनियाद पर टिकी है।


रामदेव अगर सिर्फ योग के दम पर सर्वमान्य नेता बनने चले थे तो उन्हें संघ परिवार को लेकर अपनी नीति साफ करनी चाहिए थी। मंच से एक दो मुसलमानों को बुलवा देने से कोई सेकुलर नहीं हो जाता। बोलने के लिए तो एक जैन साधु भी बोल गए। मनोज तिवारी भी गाना गा गए। लेकिन इन सबसे से पहले रामदेव आरएसएस के समर्थन का बयान दे चुके थे। पूरे पंडाल में किसी हिन्दू महासभा का पोस्टर लगा था। आर्य वीर दल का पोस्टर लगा था। केसरिया पगड़ी धारण किये हुए लोग एक धर्म एक रंग का माहौल बना रहे थे। इससे पहले भी भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और सुभाष चंद्र बोस के पोस्टर बैनर और नारों से सांप्रदायिक मन को राष्ट्रीय भावना वाला कवच पहनाने की कोशिशें होती रही हैं। यह सही है कि रामदेव ने कभी सांप्रदायिक बयान नहीं दिया। कम से कम मुझे अभी याद नहीं आ रहा है। मगर रामदेव ने स्टैंड क्यों नहीं लिया। वे अब क्यों कह रहे हैं कि उनका बीजेपी से कोई लेना देना नहीं। फिर वे क्यों कहते हैं कि उनका आरएसएस से लेना देना है।

रामलीला मैदान में जब मैं बोल रहा था कि मंच पर धार्मिक प्रतीकों, मुहावरों और प्रसंगों के ज़रिये भारत की व्याख्या की जा रही है। मैंने लाइव प्रसारण में कहना शुरू कर दिया कि भ्रष्टाचार से हर मंच से लड़ा जाना चाहिए लेकिन क्या हमने आमसहमति बना ली है कि हम इस लड़ाई के साथ-साथ भारत की धार्मिक व्याख्या भी करेंगे। अगर ऐसा है तो क्या धर्म के भीतर फैले भ्रष्टाचार से लड़ने की भी कोई पहल होगी? पास में खड़े एक सज्जन भड़क गए और कहने लगे कि धर्म को राष्ट्र से अलग नहीं किया जा सकता। ऐसी फालतू की दलीलें पहले भी सुन चुके हैं जब लोग राम मंदिर के नाम पर सत्ता सुख प्राप्त करने के लिए जुगाड़ कर रहे थे और जनता को गुमराह कर रहे थे। अगर यह दलील इतनी ही शाश्वत है तो फिर नितिन गडकरी क्यों कहते हैं कि राममंदिर बीजेपी का मुद्दा नहीं है। तो किसका था और किसका है। रथ लेकर किसके नेता निकले थे? इसीलिए धर्म से राष्ट्र की व्याख्या नहीं कर सकते। कब कौन किस पुराण की दलील देकर किधर से निकल ले पता नहीं चलता। प्रवेश करने और निकलने का मार्ग खुला रहता है। सरस्वती शिशु मंदिर और गुरुकुल की लड़कियों से हिन्दू राष्ट्र गान गवा कर किसी आंदोलन को आप गैर राजनीतिक नहीं बता सकते। पंडाल में मौजूद कई लोग जो संघ से जुड़े या समर्थन रखते हैं, दूसरे संगठन में काम करते हैं, दिल्ली आई भीड़ के ज़रिये किसी धर्म राष्ट्र का सपना तो देख ही रहे थे।

रही बात सरकार की तो वो अपने अहंकार में इतनी मदमस्त रही कि पहले दिन से लेकर आखिर दिन तक टेटिया ज़बान में बात करती रही। अण्णा हज़ारे के आंदोलन को फर्जी सीडी के ज़रिये ध्वस्त करने की कोशिश की गई। जब एक्सपोज़ हो गई तो लगी कमेटी से गंभीर बात करने। लेकिन इस बार सतर्क थी। रामदेव नहीं थे। सरकार ने रामदेव को फंसा लिया। चिट्ठी लिखवा ली। जिस तरह से चिट्ठी दिखाई जा रही थी उससे बाबा तो एक्सपोज हो ही रहे थे सरकार भी हो रही थी। रामदेव को अपनी ताकत दिखाने के बजाए अण्णा हज़ारे के साथ चलना चाहिए था। संघ और हिन्दू महासभा के लोगों को मंच पर बुलाकर मंच को राजनीतिक नहीं बनाना चाहिए था। बीजेपी भी गैर ज़िम्मेदाराना बर्ताव कर रही थी. अपने प्रोग्राम में जब मैंने राजीव प्रताप रूडी से पूछा कि क्या आप रामदेव के सभी मांगों का समर्थन देते हैं तो सीधा जवाब नहीं दिया। मैंने पूछा कि क्या पांच सौ के नोट खत्म करने और हिन्दी मीडियम शुरू करने की मांग पार्टी की है तो जवाब नहीं दिया। कहा कि पहले भ्रष्टाचार पर तय हो जाए उसके बाद देखेंगे।अब बीजेपी सत्याग्रह कर रही है कि रामदेव पर अत्याचार क्यों हुआ? फिर से जलियांवालां बाग और आपातकाल की यादें आने लगीं। किसी भी सूरत में इसकी तुलना जलियांवालां बाग से नहीं की जा सकती। इसके बावजूद कि कांग्रेस ने लाठी चलवा कर बड़ी ग़लती की है। इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी। वो सिर्फ अपनी सत्ता के अहंकार का प्रदर्शन करना चाह रही थी। पांच हज़ार पुलिस लेकर कूदने की कोई ज़रूरत नहीं थी। तब फिर राहुल गांधी कहां जाकर आंदोलन करेंगे और भट्टा परसौल की तरह मायावती की आलोचना करेंगे कि गांव के लोगों को पुलिस ने पीटा।

रामदेव का अपना मार्केट है। वे मार्केट में खेलने वाले सन्यासी रहे हैं। कई लोग मंच पर ही ग्यारह और बारह लाख का चंदा देने लगे। रांची के राम अग्रवाल ने तो ग्यारह लाख का चेक थमा दिया। दिल्ली के अशोक विहार की सभा में पचास लाख रुपये जमा होने की ख़बर थी। संसाधनों की कोई कमी नहीं रामदेव के पास। भ्रष्टाचार से लड़ने की नीयत पर भी सवाल नहीं खड़े किये जा सकते। मगर समर्थन,साधन और तरीके को लेकर बहस तो हो सकती है। शायद इसी वजह से रामदेव का आंदोलन सर्वमान्य सर्वधर्म नहीं बन सका। रामदेव के सलाहकार ग़लत थे। अब वे अपनी लड़ाई छोड़ आरएसएस और बीजेपी पर सफाई देते फिरेंगे। उन्हें तय करना होगा कि भारत को वैकल्पिक रूप से समृद्ध और खुशहाल करने का रास्ता बचे-खुचे हिन्दू संगठनों से ही जाएगा या कोई दूसरा तरीका भी है। कई बार लगता है कि वे रामलीला मैदान के पंडाल के मोह में फंस गए। जब डील हो ही गई थी तो वापस चले जाना चाहिए था। किसी व्यापारी का ही तो पैसा लगा था,उसे पुण्य तो तभी मिल गया था जब उसने बैंक से पैसे निकाल कर बाबा को दे दिये थे। उसके दुख की क्या चिन्ता।

ज़ाहिर है रामदेव और सरकार दोनों एक दूसरे से खेल रहे थे। लड़ नहीं रहे थे। इस खेल-खेल में कुछ भयंकर किस्म की ग़लतियां हो गईं। यह सरकार अब पब्लिक पर ही ताकत दिखाएगी। लाखों करोड़ों लूट कर चले गए लोगों में से दो चार को जेल भेज कर सत्याग्रही बन रही है। सवाल दो बड़े हैं। क्या किसी सही मुद्दे से लड़ने के लिए सांप्रदायिक शक्तियों का सहारा लिया सकता है और दूसरा क्या सेकुलर बने रहने के लिए किसी सरकार को अहंकारी और घोटालेबाज़ बने रहने दिया जा सकता है? बहरहाल फिर से सेकुलर बनाम सांप्रदायिकता का ट्वेंटी ट्वेंटी शुरू हो गया है।

नोट- वैसे सलवार कमीज़ और दुपट्टे में रामदेव सुसंस्कृत,सुशील,सौम्य और घरेलु लग रहे हैं। यह तस्वीर दुर्लभ है। प्राण देने वाले बाबा ने प्राण बचाने के लिए स्त्री धर्म का जो सम्मान किया है उसका मैं कायल हो गया हूं। हज़ारों की भीड़ ने बाबा को बचाने की कोशिश नहीं की, लड़कियों के छोटे से समूह ने यह जोखिम उठाया। उनका सम्मान किया जाना चाहिए।
sabhar -ravish kumar

Saturday 4 June 2011

किसानों के साथ विकास के नाम पर मज़ाक


खेती के विकास के लिए कभी आपने नेताओं की इतन सक्रियता देखी है? ग्रेटर नोएडा से लेकर देश के सैंकड़ों स्थानों पर किसानों की ज़मीन विकास के लिए ली जा रही है। खुद खेती संकट के दौर से गुज़र रही है। अनाजों को रखने के लिए अभी तक गोदाम नहीं बन सके हैं। फल-सब्ज़ियों के उत्पाद को बचाने के लिए वातानुकूलित स्टोरेज की व्यवस्था तक नहीं कर पाये। किसान का कर्ज़ा माफ करके और उस पर कर्ज़ लाद कर उसे वहीं का वहीं रख छोड़ा जा रहा है। किसानों के साथ विकास के नाम पर मज़ाक हो रहा है। गांवों में आप स्कूल,सड़कों और बिजली की हालत देख लीजिए। किसानों के बच्चे किस स्तर की शिक्षा पा रहे हैं। बीबी-बच्चों का अस्पताल जिन सरकारी अस्पतालों में होता है उनकी हालत देख लीजिए। इन सब हालात में सुधार के लिए तो कोई राजनीतिक दल आगे नहीं आता। उनके लिए अब तक कि सबसे बड़ी परियोजना यही सोची जा सकी कि उनकी दिहाड़ी मज़दूरी तय कर देते हैं। एक तरफ उन्हें पिछड़ा बनाए रखो और दूसरी तरफ उन्हें ख़ैरात बांट दो और इस खैरात का भार न पड़े इसलिए रोज़ाना पंद्रह रुपये से अधिक कमाने वाले को ग़रीब से अमीर घोषित कर दो। गांवों और किसानों के विकास के नाम पर बनी तमाम योजनाओं संपादकों के कॉलम में ही ज्यादा बेहतर और नियोजित नज़र आती हैं। ज़मीन की तस्वीर वही है जो बीस साल पहले थी। कुछ सरकार से भावनात्मक आशीर्वाद प्राप्त पत्रकार तो अब यह दलील देने लगे हैं कि देखिये गांवों में लोग टीवी खरीद रहे हैं, डिश टीवी आ रहा है, बाइक की सेल्स बढ़ गईं हैं, वहां कोई गरीबी नहीं हैं। गांवों में पैसा है।

हमारे किसानों और गांवों को बाज़ार में भी बराबरी से उतरने का मौका नहीं दिया जा रहा है। सरकार ने तो उन्हें गैर बराबरी के नीचे दबाये रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। ग्रेटर नोएडा से आगरा तक की दूरी सिर्फ पचास किमी कम हो जाए इसके लिए हज़ारों हेक्टेयर उपजाऊ ज़मीन ले ली गई। किसानों को भूमिहीन बना दिया गया। इसी के साथ खेती पर निर्भर तमाम तरह के खेतिहर मज़दूर भी बेकार हो गए। टप्पल से लेकर ग्रेटर नोएडा तक ऐसे कई किसानों से मिला जो पहले ज़मींदार थे। छोटी जोत के। ये सब अब भूमिहीन हो गए हैं। बैंकों में इनके साठ लाख की फिक्स्ड डिपोज़िट ज़रूर होगी मगर ये बेकार हो चुके हैं। दूसरे गांवों में ज़मीन लेना और बसना इतना आसान नहीं होता। पारंपरिक पेशे से उजड़ने और ज़मीन से जुड़ी सामाजिक मर्यादा के नुकसान की भरपाई मुआवज़े की राशि में नहीं होती है। इस बात का तो अध्ययन अभी तक नहीं हुआ है कि ज़मीन से बेदखल होने का गांव के पारंपरिक सामाजिक संबंधों पर क्या असर पड़ता है। राजनीतिक नारेबाज़ियों के बीच टप्पल में ही कई दलित किसानों से मिला। कानूनी अड़चनों के कारण उनकी ज़मीन का बाज़ार भाव कम होता है। दलितों ने बताया कि हमें तो अधिक दाम मिला लेकिन वो पैसा जल्दी ही घर बनाने और शादी ब्याह में खत्म हो गया. हम भी जाटों की तरह ही बेकार और विस्थापित हो गए।

इसी के साथ यह सवाल भी उभरा कि फिर इन किसान आंदोलनों के नेतृत्व या समर्थक के पैमाने पर दलितों की भागीदारी कम या नहीं के बराबर क्यों हैं? टप्पल का विरोध बड़ा नहीं होता अगर चौधरी कहे जाने वाले किसानों की ज़मीन नहीं गई होती। मेरी समझ से यह मौजूदा किसान आंदोलनों का अंतर्विरोध है। फिर भी आप देखेंगे कि किसान आंदोलन अब किसी राजनीतिक दल के मंच से नहीं होते। ग्रेटर नोएडा से लेकर टप्पल तक अलग-अलग किसान संघर्ष समितियां हैं। वक्त पड़ने पर इनके बीच साझा ज़रूर हो जाता है मगर इनका चरित्र स्थानीय है। आगरा के भूमि बचाव संघर्ष समिति के नेता ने कहा कि मुआवज़े की लड़ाई ही नहीं हैं। हम तो ज़मीन ही नहीं देना चाहते हैं। सरकार हमें पांच सौ रुपये प्रति वर्ग मीटर( अनुमानित राशि) देती है जबकि बिल्डर को देती है दो से तीन हज़ार वर्ग मीटर के दर से। यानी पहला मुनाफा तो सरकार ने ही बनाया। फिर बिल्डर उस ज़मीन को पंद्रह से बीस हज़ार प्रति वर्ग मीटर के रेट से बेच रहा है। अगर आप इस इलाके की ज़मीन का औसत मूल्य के आधार पर भी हिसाब लगाए तो यह घोटाला तीस लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा का है। सवाल है कि सरकार क्यों नहीं किसानों को सीधे बाज़ार में उतरने दे रही है। वो उनसे ज़मीन लेकर बिल्डरों को क्यों बेच रही है। जो सरकार को मुनाफा हो रहा है वो किसानों को क्यों नहीं मिल रहा है।

दूसरी बात क्या कोई साबित कर सकता है कि बीस साल के उदारीकरण में जो विकास हुआ उसमें किसानों की भी हिस्सेदारी रही। भागीदारी तो नहीं रही उनकी। फिर किस हक से उनकी ज़मीन हड़प ली जा रही है। बुनियादी ढांचे के विकास की इतनी बेताबी है तो खेती में बुनियादी ढांचे के विकास की बात क्यों नहीं हो रही है। कितनी सिंचाई परियोजनाएं आपने इस दौरान बनती देखी है। कितनी ऐसी योजनाएं आपने देखी हैं, मधुमक्खी पालन के अलावा, जिनसे खेती का उद्योगिकरण हो रहा है।

मीडिया तो राहुल गांधी को कवरेज देगी ही। लेकिन जो सवाल है तीस लाख करोड़ रुपये के घोटाले का,उसकी कोई तहकीकात नहीं करेगा। क्योंकि ये सवाल उसे मायावती तक ले जाने से पहले प्रायोजकों के दरवाजे पर ले जायेंगे। इसलिए आप किसानों के इस आंदोलन की कवरेज में पीपली लाइव का तमाशा देखिये। ऐसा फालतू दर्शक समाज मैंने कहीं नहीं देखा और पालतू मीडिया। किसान मुआवज़े की राशि लेकर देसी शराब के ठेके पर नहीं जायेगा तो क्या करेगा। उसे क्या हमने ऐसी तालीम दी है कि वह अपना उद्योग धंधा कायम कर सके। आखिर मुआवज़े से विकास होता तो आप ग्रेटर नोएडा और गुड़गांव के किसानों का अध्य्यन तो कीजिए और पता तो लगाइये कि इतनी बड़ी राशि आने के बाद कितने किसानों ने उद्यमिता का मार्ग अपनाया। हां कुछ किसानों की शानो शौकत की खबरें आप अखबारों में ज़रूर पढ़ते रहे होंगे। ये वो कुछ किसान हैं जिनके पास बेहिसाब ज़मीन थी और राजनीतिक सत्ता से संबंध जिनके बूते इन्होंने अपने पैसा का तानाबाना बुन लिया। बाकी किसान पव्वा और अध्धा में ही व्यस्त रह गए। टेंपो ड्राइवर बन गए।

भाई साहब,किसी नेता से पूछिये तो वो किसी बिल्डर के बारे में क्यों नहीं बोल रहे। कमीशन तो उन्हें भी मिलता रहा है बिल्डरों से। माफ कीजिएगा। ये आज कल डेवलपर कहलाने लगे हैं। विकास आज के समय का सबसे बड़ा डाकू है।
साभार -रविश कुमार 

Friday 3 June 2011

शंका में संघ

क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कही गुम हो गया है। क्या संघ परिवार के भीतर आतंकवादी हिंसा के दाग का दर्द है। क्या आरएसएस अयोध्या पर जा रुके हिन्दुत्व को नये तरीके से परिभाषित करना चाहता है। क्या स्‍वयंसेवक अब भाजपा के पीछे चलने को तैयार नहीं है। क्या संघ कोई नयी व्यूह रचना में लगा है। चाहे यह सारे सवाल हों, लेकिन संघ परिवार के भीतर यही सवाल ऑक्सीजन का काम कर रहे हैं। क्‍योंकि पहली बार आरएसएस यह मान रहा है कि बिछी हुई बिसात में ना तो भाजपा सियासी फन काढ़ सकती है और ना ही संघ सामाजिक तौर पर अपनी ताकत बढ़ा सकता है। और अगर वह फेल है तो पास होने के लिये उसे नये सिरे से नयी परिस्थितियां खड़ी करनी होंगी। इस सवाल ने संघ ने कुछ ऐसे निर्णयों पर सोचने का मन भी बनाया है जिन पर अभी तक रास्ता निकालने की जद्दोजहद ही समायी रहती थी। यानी जहां फेल हो रहे हैं उसके कारण खोजे जायें। उन्हें ठीक किया जाये। क्‍योंकि अखिरकार सभी को साथ लेकर ही तो चलना है। यह सोच पहली बार बदल रही है। राजनीति का रास्ता भाजपा तभी तय करती जब आरएसएस सामाजिक लकीर खींच देता है। लेकिन, संघ लकीर ना खींचे तो पाकिस्तान से लेकर महंगाई तक और किसान से लेकर भ्रष्‍टाचार तक के मुद्दों पर भाजपा कहीं नजर नहीं आती है। ऐसे में राजनीति में हाथ जलाये बगैर कौन सा प्रयोग संघ को सामाजिक तौर पर मान्यता दिलाते हुये सियासत पलट सकता है।

1974 के बाद पहली बार संघ में इस बात पर कुलबुलाहट शुरू हुई है। पहली सहमति है कि तरीका सियासी या भाजपा के कांधे पर सवार होकर नहीं चलेगा। दूसरी सहमति है कि संघ परिवार के सभी संगठन अपने अपने दायरे को बड़ा करते हुये अगर आदिवासी, किसान, स्वदेशी अर्थव्यवस्था, लघु उघोग से लेकर छात्र और मजदूरों के सवालों को ही उंठाये, तो नयी बिसात बिछाने में कोई परेशानी हो नही सकती। यानी किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय मजदूर संघ, लघु उद्योग भारती समेत चालीस से ज्यादा क्षेत्रों में कार्यरत संघ के स्वयंसेवक बीते सात बरस में रुक गये हैं। सात बरस पहले संघ साप्तहिक या मासिक तौर पर देश भर में 5827 स्थानो पर बैठक किया करता था। लेकिन, उसके बाद से यह घटते-घटते तीन हजार तक आ पहुंचा। वहीं 2004 तक यानी भाजपा की सत्ता रहते हुये भी सत्ता भोग रहे स्वयंसेवक भी विभिन्न संगठनों में शिरकत किया करते थे। लेकिन सत्ता गंवाने के बाद भाजपा और आरएसएस के बीच के तार सिर्फ राजनीतिक मुद्दों को लेकर ही जुड़े। धीरे-धीरे यह संबंध ऐसे बेअसर हो चुके हैं कि संघ की किसी भी पाठशाला में भाजपा नेताओं की मौजूदगी संघियों में गुस्सा पैदा करती है और भाजपा भी संघ को अयोध्या के घेरे से बाहर देख नहीं पाती। इसलिये भाजपा की राजनीतिक बैठकों में संघ के स्वयंसेवकों की मौजूदगी दिल्ली के माडरेट राजनेताओं को दूर कर देती है। इसका पहला असर तो यही हुआ है कि आरएसएस संघ मंडलियां घटकर 5629 तक आ पहुंची हैं, जो 2003 में 7037 हुआ करती थीं। हालांकि देश के भीतर के हालातों ने संघ के महत्व को भी बढ़ाया है और 2700 से ज्यादा प्रचारकों में से करीब साढे पांच सौ प्रचारक जो अलग-अलग संगठनों में लगे हैं उनके काम बढ़े हैं। आम-आदमी से जुड़े जो मुद्दे प्रचारकों की बैठको में उठते हैं उसमें पहली बार यह सवाल भी उठे हैं कि राजनीतिक तौर पर जब भाजपा इन सवालो का सामना करने को तैयार नहीं है या फिर भाजपा सफल नहीं हो पा रही है, तो संघ को भाजपा के पीछे क्यों खड़े होना चाहिये।

भ्रष्‍टाचार और महंगाई का सवाल भाजपा ने ना सिर्फ उठाया बल्कि उसकी राजनीतिक शुरुआत असम से की। और असम के चुनाव में संघ परिवार भी भाजपा के पीछे खड़ा हुआ। यहां तक कि संघ की शाखायें भी राजनीतिक तौर पर असम में मुद्दों पर चर्चा करने लगीं। लेकिन, भाजपा का हाथ खाली ही रहा। और इस चुनावी हार ने आरएसएस के उत्तर-पूर्वी राज्यों के बोडोलैण्ड से लेकर बांग्लादेशी जैसे मुद्दों को भी सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया। यानी संघ के भीतर नया सवाल यह भी है कि जिन सामाजिक मुद्दों पर संघ ने अपनी पहचान बनायी और जिन मुद्दों पर भाजपा की सियासत में सामाजिक सरोकार के टांके लगे वही सुनहरे टांके अब संघ परिवार को भाजपा की वजह से चुभ रहे हैं। ऐसे ही सवाल किसान संघ और स्वदेशी जागरण मंच के दायरे में भी हैं। इसलिये आरएसएस अब खुद को मथने के लिये तैयार हो रहा है। और मथने के इस दौर में मुद्दों के आसरे जिन स्थितियों को संघ बनाने में जुटा है उसमें सामाजिक-राजनीतिक का ऐसा घोल भी घुल रहा है जो भाजपा के विकल्प की दिशा में बढता कदम भी हो सकता है। अन्ना हजारे के मंच पर संघ की पहल। बाबा रामदेव के साथ खडे गोविन्दाचार्य की अनदेखी कर रामदेव के उठाये मुद्दों पर स्‍वयंसेवकों को साथ खडा करने की सोच। स्पेक्ट्रम घोटाले के खिलाफ खडे सु्ब्रहमण्यम स्वामी के जरिये संघ के सवालों को धार देने का प्रयास। किसानों की त्रासदी को बिगड़ी अर्थवयवस्था से जोड़ने का प्रयास और महंगाई को समाज में बढ़ती असमानता के अक्स में देखने और दिखाने की जद्दोजेहद।

और इन सारे प्रयासों में आरएसएस कभी भी भाजपा के नेताओं या उनकी राजनीतिक शिरकत के साथ नहीं रही। तो क्या संघ राजनीतिक तौर पर भाजपा की वर्तमान जरुरतों को दूसरे आंदोलन वाले चेहरो के आसरे पूरा कर रही है। या फिर पहले आरएसएस की पारंपरिक परिभाषा को नये कलेवर में रखना चाह रही है। क्‍योंकि एक तरफ सुब्रहमण्यम स्वामी संकेत देते हैं कि हिन्दुत्व की नयी परिभाषा संघ को गढनी होगी। और सोनिया गांधी का जवाब अब भाजपा के पास नहीं है और अयोध्या में ठिठका हिन्दुत्व भी सोनिया के सेक्यूलरवाद में सेंध नहीं लगा सकता। वहीं स्वदेशी जागरण मंच से गुरुमूर्त्ति संकेत देते है कि मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था के भ्रष्‍टाचार से भाजपा इसलिये नहीं लड़ सकती क्‍योंकि उसके पास न तो वैकल्पिक इकनॉमी का कोई मॉडल है और ना ही वह खुद भ्रष्‍टाचार से मुक्त है। जबकि आरएसएस को स्वदेशी मॉडल को बदलना होगा। यही सवाल मजदूर संघ को लेकर भी हैं। क्‍योंकि मनमोहन सिंह की अर्थवयवस्था में जब ट्रेड यूनियन ही मायने नही रख पा रही है और बाजार अर्थव्यवस्था पर नकेल कसने का सवाल खडा करने वाली वाम सत्ता को भी जब जनता ने ध्वस्त कर दिया तो फिर आरएसएस की संख्या किसी भी राजनीति पार्टी को कितना लाभ पहुंचा सकती है। अब यह भाजपा भी जान रही है और संघ भी। इसलिये संघ के सामने नया सवाल यही है कि संघ के मुद्दे जब तक राजनीति के केन्द्र में ना आयेंगे तबक आरएसएस के सवाल भाजपा के पीछे ही चलेगे और भाजपा कांग्रेस की कार्बन कापी ही नजर आयेगी। इसलिये आरएसएस के भीतर नयी वैचारिक उठा-पटक उन मुद्दों के आसरे अपने संगठनो को खड़ा कर राजनीति की धारा को अपने अनुकूल करने की ही है।

संघ समझ रहा है कि राजनीतिक तौर पर 1974 की तर्ज पर जेपी का कोई राजनीतिक प्रयोग तो संभव नहीं है, लेकिन बाबा रामदेव के आसरे ही सही अगर संघ को जगाया जा सकता है और सरकार को चेताया जा सकता है तो 2014 तक भाजपा के बदले एक नया राजनीतिक संगठन भी खड़ा किया जा सकता है, जो राजनीतिक दल के तौर पर मान्यता पाये और विकल्प भी बने। क्‍योंकि मनमोहन सरकार से आम आदमी को मोह भंग हो चुका है, लेकिन काग्रेस का विकल्प भाजपा हो इसे लोग स्वीकारने की स्थिति में नहीं हैं। और संघ अब भाजपा को शह देने की स्थिति में भी नहीं है। नयी परिस्तितियों में रामदेव हों या अन्ना हजारे, हर किसी को आंदोलन के लिये जो संगठन चाहिये वह सिर्फ आरएसएस के पास है, और नयी परिस्थितियां पहली बार संघ को उसी दिशा में ले जा रही है जहां रेड्डी बंधुओ पर आपस में भिड़ी भाजपा को दफन किया जा सके और संघ ही एक वैकल्पिक सोच का आईना बने । जहां भविष्य में संघ में किसी मुद्दे को लेकर अयोध्या की तर्ज पर ठहराव ना हो। और नयी पीढी यानी युवा तबका संघ को पारंपरिक ना मान कर भारतीय सामाजिक परिस्थितियों को वैज्ञानिक तरीके से अपने अनुकुल पाये, और संघ की पहल इसी सोच को जोड़ते हुये उन खतरों को उठाते चले जो देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था पर ही सवालिया निशान लगाये हुये हैं। पहला प्रयोग बाबा रामदेव से शुरू होना है इसलिये इंतजार कीजिये। क्‍योंकि संघ का नया रास्ता इससे भी तय होगा लेकिन संघ जीते या हारे दोनों स्थितियों में भाजपा खतरे में है यह तो तय है                                                                                                                                                                                            साभार -पुण्य प्रसून बाजपेयी

Wednesday 1 June 2011

पत्रकारिता का विचार-वाचन काल

दसवीं की हिन्दी की किताब में किसी मशहूर लेख का हिस्सा था। तुलसी के बारे में किसी महान लेखक ने लिखा था शायद। खैर यह संदर्भ ग़लत भी हो तो कोई बात नहीं। मैं पहली पंक्ति यानी प्रमेय का इतना सा मतलब समझता हूं कि एक व्यक्ति में जीवन के तमाम पहलुओं को विचारने और बोलने की क्षमता आ जाए तो वो ऐसे प्रमेयों पर खरा उतरता है। टीवी ने एक ऐसा चैट ब्रिगेड पैदा कर दिया है जो दस मिनट में किसी भी बहुमुखी समस्या पर एकमुखी जवाब देने में माहिर हैं। हबर-हबर सवालों को ठेल-ठेल कर अपने जवाबों के लिए स्पेस बना लेते हैं। वो आते हैं। आते-जाते रहते हैं। कई बार समस्याओं की ऐसी परत खोल जाते हैं जो वायुमंडल में अनियंत्रित विचरित करने लगते हैं। टीवी तो ब्रेक लेकर लौट चुका होता है मगर सुनने वालों के कानों से मस्तिष्क तक की यात्रा में उनके विचार कैसे-कैसे रूप धरते होंगे मालूम नहीं।

टीवी पर चैट ब्रिगेड अब एक हकीकत है। टीवी के उदय के साथ ही आया। अख़बारों में तो इस चैट ब्रिगेड के हवाले पांच एकड़ का संपादकीय पन्ना कर दिया जाता रहा है। जिनमें हम सभी अपना कूड़ा और सोना एक साथ उगलते रहते हैं। जनमत निर्माण की प्रक्रिया में। सरकार,सेना,विश्वविद्यालय से रिटायर हुए इन चैट गुरुओं के दम पर टीवी का काम चलेगा। पत्रकारों को अब ऐसा मौका नहीं मिलेगा कि वो मौके पर जाने के अपने अनुभवों का सार दर्शकों के सामने प्रस्तुत कर सकेंगे। इसलिए अब इन चैट गुरुओं के विशाल अनुभवों का लाभ उठाया जाने लगा है। टाइम्स नाउ ने इसे औपचारिक और सांस्थानिक रूप दे दिया है। दो घंटे तक दर्शकों का कौन वर्ग एक या दो मुद्दे पर लगातार अलग-अलग विचार वाचन सुन रहा है मालूम नहीं। सुन ही रहा होगा तभी हर तरफ उसकी अनुकृति दिखाई देती है। टाइम्स नाउ से पहले जब एनडीटीवी ने न्यूज़ आवर, बिग फाइट,मुकाबला और वी द पिपुल की शुरूआत की थी तब ऐसे शो सप्ताहांत में ठेले जाते थे। सीधी-बीत,कशमकश,मुद्दा, ज़िंदगी लाइव,सलाम ज़िंदगी,वर्सेस,अस्मिता जैसे कई शो अस्तित्व में आए। आप की अदालत ने तो पायनियर का काम किया है।

माना जाता था कि छुट्टी के दिन दर्शक विचार-वाचन सुनना पसंद करेगा। इन शो के लिए विचार वाचक खोजे गए। कई लोग इस आधार पर रिजेक्ट किए गए,जो जानकारी तो बहुत रखते थे मगर बोलने की शुरूआत पृष्ठभूमि और संदर्भ से करने लगते थे। हर सवाल का जवाब उस मुद्दे पर लिखी गई सारी किताबों का सार प्रस्तुत कर देने लगते थे। इसी ट्रायल एंड एरर में कई लोगों ने बाज़ी मार ली। उन्होंने खुद को ज़रूरतों के हिसाब से ढाल लिया। वो सवाल कोई सा हो मगर अपना जवाब तीस सेकेंड में वायुमंडल में ठेल देते हैं तो तरंगों पर सवार होकर आपके कानों तक पहुंचने लगा। बहुत से विचार-वाचक एंकर के मुकाबिल स्टार हो गए। उनकी पूछ इतनी बढ़ गई कि एक आदमी के पीछे पांच-पांच चैनल के गेस्ट रिलेशन के लोग पैदा हो गए। हर चैनल में गेस्ट रिलेशन संपादकीय टीम का हिस्सा हो गया। नेता,विचार-वाचक अब इस गेस्ट रिलेशन के लोगों के संपर्क में आ गए। पत्रकारों की जगह इन लोगों ने ले ली। जो जानकारी एक पत्रकार को होनी चाहिए कि किस विषय पर कौन कैसा बोलता है वो अब गेस्ट रिलेशन के लोग जानते हैं। इसीलिए इन्हें अब पत्रकार और संपादकीय टीम का हिस्सा मानना ही होगा। ख़बरों की भनक भी कई मामलों में इन्हें पत्रकारों से पहले लग जाती है। पर अभी इन्हें वो संपादकीय सम्मान नहीं मिला है।

ख़ैर,टाइम्स नाउ ने न्यूज़ आवर की परंपरा को आगे बढ़ाया। अब हर चैनल में विचार वाचन तुरंत होने लगा है। उसी दिन और उसी शाम। विचार-वाचन पत्रकारिता अब वीकेंड नहीं रही। डेली हो गई। जिस दर्शक के बारे में कहा जाता है कि समय नहीं है उसके पास ठहर कर ख़बर देखने-सुनने की इसलिए स्पीड न्यूज़ दो वही दर्शक ठहर-ठहर कर विचार सुन रहा है। वो भी रोज़। अब कोई तो बताये कि दर्शकों के पास कहां से घंटों विचार सुनने का वक्त पैदा हो गया है। हिन्दी-अंग्रेजी कोई सा भी चैनल हो किसी न किसी पर कोई न कोई गेस्ट होता ही है। विचार-वाचकों का न्यूज़ रूप में औपचारिक नाम गेस्ट होता है। जिसे एंकर लाइव होते ही जानकार बताता है। मुझे विचार-वाचक तुलसी की तरह लगते हैं। इन्हें जीवन का हर दर्शन मालूम होता है। ये हर सवाल का मुकम्मल जवाब दे सकते हैं। अखबारों में भी नए-नए विचार वाचक ढूंढे जा रहे हैं। वहां भी टीवी की प्रक्रिया का असर हो रहा है। वहां भी जानने वाले की जगह पहचाने जाने वाले को ढूंढा जा रहा है। जो फेस है वही रेस में है। जो फेस नहीं है वो आउट। विचार का संबंध जानकारी से कम पहचान से ज्यादा हो रहा है।

पाकिस्तान को लेकर ही सारी थ्योरी अपनी जगह पर स्थिर है। मगर विचार-वाचक आकर उसे प्लावित कर देते हैं। किसी भी बहस में पाकिस्तान को लेकर उम्मीद पैदा नहीं की जाती। उसके आवाम की कोई तस्वीर नहीं बनती। सिर्फ धांय-धांय बात-बम फेंका जाता रहा है। कितने साल से कहा जाता रहा है कि पाकिस्तान नाकाम और नापाक हो चुका है। मगर पाकिस्तान तो अपनी जगह पर कायम है। चुनौतियां किस मुल्क के इतिहास में नहीं आतीं। बात और है कि पाकिस्तान की यह रात थोड़ी लंबी हो गई है। पाकिस्तान को लेकर होने वाली हर बहस में भारत को जीतना ही क्यों ज़रूरी होता है। सियासी प्रवक्ता तो हर सवाल पर एक ही बात करते हैं। इनका-उनका चलता रहता है। उनकी बातों को ध्यान से सुनें तो कोई नतीजा नहीं निकलता। ऐसा लगता है कि बिना साइलेंसर वाली बाइक भड़भड़ाते हुए मोहल्ले से गुज़र गई। जब तक आपने खिड़की खोली कि हुआ क्या है तब तक न धुआं बचता है न शोर। सियासी प्रवक्ता शाम को टीवी पर आने में माहिर हो गए हैं। इनमें शरद यादव जैसे माहिर नेता भी हैं। साफ मना कर देते हैं। कहते हैं सियासी बातें ऐसे नहीं होती हैं। लेकिन बाकी लोगों को तो पार्टी की तरफ से काम दिया गया है कि टीवी में बोलना है। उनकी बात को काटने का प्रमाण तो होता नहीं। सिर्फ एंकर के भयंकर और नवीनतम सवाल होते हैं। लगता है कि बम ही छोड़ दिया लेकिन छुरछुराने के बाद कोई धमाका नहीं होता। क्योंकि कई जगहों पर अब रिपोर्टर ख़बर नहीं,गेस्ट लाने लगा है।

आप देखते रहिए माफ कीजिएगा सुनते रहिए टीवी।पर एक बात है अच्छा बोलने वाला मिले, धज और धमक से तो बहस में वाकई मज़ा आ जाता है। नई दलील आ जाए,नई बात आ जाए तब। कई बार यही गेस्ट रिपोर्ट की अधूरी ख़बर को अपनी जानकारियों से पूरी भी कर देते हैं। यह शुक्ल पक्ष है। बहरहाल,विचार-वाचन पत्रकारिता का औपचारिक स्वागत किया जाना चाहिए। हालांकि ये मौजूद तो टीवी के आने के समय से ही है। टीवी दिखाने की जगह बोलने की चीज़ हो गया है। लोकसभा टीवी से लेकर तमाम टीवी में लंबी-लंबी चर्चाएं हो रही हैं। अमर्त्य सेन ने ठीक ही कहा है कि हम बातुनी इंडियन हैं। हर जगह वही लोग बोल रहे हैं। वही लोग सुन रहे हैं। कुछ लोग बहुत अच्छा बोल रहे हैं। कुछ लोग वही बात बार-बार अच्छा बोल रहे हैं। जो बोलता है वो दिखता है। नया फार्मूला। वैसे है पुराना। नया कहने से थोड़ा कापीराइट का क्लेम आ जाता है।

            - साभार कस्बा