Tuesday 7 June 2011

सेकुलर बनाम सांप्रदायिकता का ट्वेंटी ट्वेंटी

कांग्रेस ने चालाकी से भ्रष्टाचार के मुद्दे को धर्मनिरपेक्ष बनाम सांप्रदायिक में बदल दिया है। रामदेव को मिठाई खिलाने से लेकर पिटाई तक के सफर में कांग्रेस अपनी कमज़ोरी को मर्दाना ताकत की दवाओं से दूर कर देने के लिए बेबस नज़र आई। दिल्ली आने से पहले रामदेव ने कहा था कि मुझे आरएसएस का समर्थन प्राप्त है। कभी नहीं कहा कि मैं आरएसएस से दूर हूं। रामदेव सरकार के दबाव में कहने लगे कि यह मंच राजनीतिक नहीं है। राजनीतिक काम करने वाले संघ को सामाजिक बता कर कब एनजीओ में बदल दिया जाता है ये सब भगवा दल की मर्ज़ी पर निर्भर करता है। साधु सियासत में रंग लगाने आते और भांग घोल कर चले जाते हैं। मंदिर मुद्दे पर लुट-पिट जाने के बाद सत्ता संघर्ष में वापसी के लिए बेचैन सन्यासी दल रामदेव को सहारा बना रहे थे। शनिवार को रामलीला मैदान में मंच से धार्मिक बयान दिये जा रहे थे। भारत महान की भगवा व्याख्या होने लगी। हरिद्वार के भारत माता मंदिर ट्रस्ट के किसी भगवा प्रमुख ने कहा कि वे महाभारत के किस्से तो पढ़ते हैं मगर आज सचमुच के महाभारत में शामिल होने आए हैं। कहीं से इन सबके दिमाग में है कि प्राचीन भारत की जड़ों में सन्यासियों का पसीना है। उनके आशीर्वाद और प्रताप से प्राचीन भारत विश्वविजेता था और अगर ये मिलकर एक मंच पर आ जायें तो भारत फिर से विश्वविजेता हो जाएगा। विश्वविजेता वाली अवधारणा ही कुंठित मनों की बुनियाद पर टिकी है।


रामदेव अगर सिर्फ योग के दम पर सर्वमान्य नेता बनने चले थे तो उन्हें संघ परिवार को लेकर अपनी नीति साफ करनी चाहिए थी। मंच से एक दो मुसलमानों को बुलवा देने से कोई सेकुलर नहीं हो जाता। बोलने के लिए तो एक जैन साधु भी बोल गए। मनोज तिवारी भी गाना गा गए। लेकिन इन सबसे से पहले रामदेव आरएसएस के समर्थन का बयान दे चुके थे। पूरे पंडाल में किसी हिन्दू महासभा का पोस्टर लगा था। आर्य वीर दल का पोस्टर लगा था। केसरिया पगड़ी धारण किये हुए लोग एक धर्म एक रंग का माहौल बना रहे थे। इससे पहले भी भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और सुभाष चंद्र बोस के पोस्टर बैनर और नारों से सांप्रदायिक मन को राष्ट्रीय भावना वाला कवच पहनाने की कोशिशें होती रही हैं। यह सही है कि रामदेव ने कभी सांप्रदायिक बयान नहीं दिया। कम से कम मुझे अभी याद नहीं आ रहा है। मगर रामदेव ने स्टैंड क्यों नहीं लिया। वे अब क्यों कह रहे हैं कि उनका बीजेपी से कोई लेना देना नहीं। फिर वे क्यों कहते हैं कि उनका आरएसएस से लेना देना है।

रामलीला मैदान में जब मैं बोल रहा था कि मंच पर धार्मिक प्रतीकों, मुहावरों और प्रसंगों के ज़रिये भारत की व्याख्या की जा रही है। मैंने लाइव प्रसारण में कहना शुरू कर दिया कि भ्रष्टाचार से हर मंच से लड़ा जाना चाहिए लेकिन क्या हमने आमसहमति बना ली है कि हम इस लड़ाई के साथ-साथ भारत की धार्मिक व्याख्या भी करेंगे। अगर ऐसा है तो क्या धर्म के भीतर फैले भ्रष्टाचार से लड़ने की भी कोई पहल होगी? पास में खड़े एक सज्जन भड़क गए और कहने लगे कि धर्म को राष्ट्र से अलग नहीं किया जा सकता। ऐसी फालतू की दलीलें पहले भी सुन चुके हैं जब लोग राम मंदिर के नाम पर सत्ता सुख प्राप्त करने के लिए जुगाड़ कर रहे थे और जनता को गुमराह कर रहे थे। अगर यह दलील इतनी ही शाश्वत है तो फिर नितिन गडकरी क्यों कहते हैं कि राममंदिर बीजेपी का मुद्दा नहीं है। तो किसका था और किसका है। रथ लेकर किसके नेता निकले थे? इसीलिए धर्म से राष्ट्र की व्याख्या नहीं कर सकते। कब कौन किस पुराण की दलील देकर किधर से निकल ले पता नहीं चलता। प्रवेश करने और निकलने का मार्ग खुला रहता है। सरस्वती शिशु मंदिर और गुरुकुल की लड़कियों से हिन्दू राष्ट्र गान गवा कर किसी आंदोलन को आप गैर राजनीतिक नहीं बता सकते। पंडाल में मौजूद कई लोग जो संघ से जुड़े या समर्थन रखते हैं, दूसरे संगठन में काम करते हैं, दिल्ली आई भीड़ के ज़रिये किसी धर्म राष्ट्र का सपना तो देख ही रहे थे।

रही बात सरकार की तो वो अपने अहंकार में इतनी मदमस्त रही कि पहले दिन से लेकर आखिर दिन तक टेटिया ज़बान में बात करती रही। अण्णा हज़ारे के आंदोलन को फर्जी सीडी के ज़रिये ध्वस्त करने की कोशिश की गई। जब एक्सपोज़ हो गई तो लगी कमेटी से गंभीर बात करने। लेकिन इस बार सतर्क थी। रामदेव नहीं थे। सरकार ने रामदेव को फंसा लिया। चिट्ठी लिखवा ली। जिस तरह से चिट्ठी दिखाई जा रही थी उससे बाबा तो एक्सपोज हो ही रहे थे सरकार भी हो रही थी। रामदेव को अपनी ताकत दिखाने के बजाए अण्णा हज़ारे के साथ चलना चाहिए था। संघ और हिन्दू महासभा के लोगों को मंच पर बुलाकर मंच को राजनीतिक नहीं बनाना चाहिए था। बीजेपी भी गैर ज़िम्मेदाराना बर्ताव कर रही थी. अपने प्रोग्राम में जब मैंने राजीव प्रताप रूडी से पूछा कि क्या आप रामदेव के सभी मांगों का समर्थन देते हैं तो सीधा जवाब नहीं दिया। मैंने पूछा कि क्या पांच सौ के नोट खत्म करने और हिन्दी मीडियम शुरू करने की मांग पार्टी की है तो जवाब नहीं दिया। कहा कि पहले भ्रष्टाचार पर तय हो जाए उसके बाद देखेंगे।अब बीजेपी सत्याग्रह कर रही है कि रामदेव पर अत्याचार क्यों हुआ? फिर से जलियांवालां बाग और आपातकाल की यादें आने लगीं। किसी भी सूरत में इसकी तुलना जलियांवालां बाग से नहीं की जा सकती। इसके बावजूद कि कांग्रेस ने लाठी चलवा कर बड़ी ग़लती की है। इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी। वो सिर्फ अपनी सत्ता के अहंकार का प्रदर्शन करना चाह रही थी। पांच हज़ार पुलिस लेकर कूदने की कोई ज़रूरत नहीं थी। तब फिर राहुल गांधी कहां जाकर आंदोलन करेंगे और भट्टा परसौल की तरह मायावती की आलोचना करेंगे कि गांव के लोगों को पुलिस ने पीटा।

रामदेव का अपना मार्केट है। वे मार्केट में खेलने वाले सन्यासी रहे हैं। कई लोग मंच पर ही ग्यारह और बारह लाख का चंदा देने लगे। रांची के राम अग्रवाल ने तो ग्यारह लाख का चेक थमा दिया। दिल्ली के अशोक विहार की सभा में पचास लाख रुपये जमा होने की ख़बर थी। संसाधनों की कोई कमी नहीं रामदेव के पास। भ्रष्टाचार से लड़ने की नीयत पर भी सवाल नहीं खड़े किये जा सकते। मगर समर्थन,साधन और तरीके को लेकर बहस तो हो सकती है। शायद इसी वजह से रामदेव का आंदोलन सर्वमान्य सर्वधर्म नहीं बन सका। रामदेव के सलाहकार ग़लत थे। अब वे अपनी लड़ाई छोड़ आरएसएस और बीजेपी पर सफाई देते फिरेंगे। उन्हें तय करना होगा कि भारत को वैकल्पिक रूप से समृद्ध और खुशहाल करने का रास्ता बचे-खुचे हिन्दू संगठनों से ही जाएगा या कोई दूसरा तरीका भी है। कई बार लगता है कि वे रामलीला मैदान के पंडाल के मोह में फंस गए। जब डील हो ही गई थी तो वापस चले जाना चाहिए था। किसी व्यापारी का ही तो पैसा लगा था,उसे पुण्य तो तभी मिल गया था जब उसने बैंक से पैसे निकाल कर बाबा को दे दिये थे। उसके दुख की क्या चिन्ता।

ज़ाहिर है रामदेव और सरकार दोनों एक दूसरे से खेल रहे थे। लड़ नहीं रहे थे। इस खेल-खेल में कुछ भयंकर किस्म की ग़लतियां हो गईं। यह सरकार अब पब्लिक पर ही ताकत दिखाएगी। लाखों करोड़ों लूट कर चले गए लोगों में से दो चार को जेल भेज कर सत्याग्रही बन रही है। सवाल दो बड़े हैं। क्या किसी सही मुद्दे से लड़ने के लिए सांप्रदायिक शक्तियों का सहारा लिया सकता है और दूसरा क्या सेकुलर बने रहने के लिए किसी सरकार को अहंकारी और घोटालेबाज़ बने रहने दिया जा सकता है? बहरहाल फिर से सेकुलर बनाम सांप्रदायिकता का ट्वेंटी ट्वेंटी शुरू हो गया है।

नोट- वैसे सलवार कमीज़ और दुपट्टे में रामदेव सुसंस्कृत,सुशील,सौम्य और घरेलु लग रहे हैं। यह तस्वीर दुर्लभ है। प्राण देने वाले बाबा ने प्राण बचाने के लिए स्त्री धर्म का जो सम्मान किया है उसका मैं कायल हो गया हूं। हज़ारों की भीड़ ने बाबा को बचाने की कोशिश नहीं की, लड़कियों के छोटे से समूह ने यह जोखिम उठाया। उनका सम्मान किया जाना चाहिए।
sabhar -ravish kumar

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