Friday 3 June 2011

शंका में संघ

क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कही गुम हो गया है। क्या संघ परिवार के भीतर आतंकवादी हिंसा के दाग का दर्द है। क्या आरएसएस अयोध्या पर जा रुके हिन्दुत्व को नये तरीके से परिभाषित करना चाहता है। क्या स्‍वयंसेवक अब भाजपा के पीछे चलने को तैयार नहीं है। क्या संघ कोई नयी व्यूह रचना में लगा है। चाहे यह सारे सवाल हों, लेकिन संघ परिवार के भीतर यही सवाल ऑक्सीजन का काम कर रहे हैं। क्‍योंकि पहली बार आरएसएस यह मान रहा है कि बिछी हुई बिसात में ना तो भाजपा सियासी फन काढ़ सकती है और ना ही संघ सामाजिक तौर पर अपनी ताकत बढ़ा सकता है। और अगर वह फेल है तो पास होने के लिये उसे नये सिरे से नयी परिस्थितियां खड़ी करनी होंगी। इस सवाल ने संघ ने कुछ ऐसे निर्णयों पर सोचने का मन भी बनाया है जिन पर अभी तक रास्ता निकालने की जद्दोजहद ही समायी रहती थी। यानी जहां फेल हो रहे हैं उसके कारण खोजे जायें। उन्हें ठीक किया जाये। क्‍योंकि अखिरकार सभी को साथ लेकर ही तो चलना है। यह सोच पहली बार बदल रही है। राजनीति का रास्ता भाजपा तभी तय करती जब आरएसएस सामाजिक लकीर खींच देता है। लेकिन, संघ लकीर ना खींचे तो पाकिस्तान से लेकर महंगाई तक और किसान से लेकर भ्रष्‍टाचार तक के मुद्दों पर भाजपा कहीं नजर नहीं आती है। ऐसे में राजनीति में हाथ जलाये बगैर कौन सा प्रयोग संघ को सामाजिक तौर पर मान्यता दिलाते हुये सियासत पलट सकता है।

1974 के बाद पहली बार संघ में इस बात पर कुलबुलाहट शुरू हुई है। पहली सहमति है कि तरीका सियासी या भाजपा के कांधे पर सवार होकर नहीं चलेगा। दूसरी सहमति है कि संघ परिवार के सभी संगठन अपने अपने दायरे को बड़ा करते हुये अगर आदिवासी, किसान, स्वदेशी अर्थव्यवस्था, लघु उघोग से लेकर छात्र और मजदूरों के सवालों को ही उंठाये, तो नयी बिसात बिछाने में कोई परेशानी हो नही सकती। यानी किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय मजदूर संघ, लघु उद्योग भारती समेत चालीस से ज्यादा क्षेत्रों में कार्यरत संघ के स्वयंसेवक बीते सात बरस में रुक गये हैं। सात बरस पहले संघ साप्तहिक या मासिक तौर पर देश भर में 5827 स्थानो पर बैठक किया करता था। लेकिन, उसके बाद से यह घटते-घटते तीन हजार तक आ पहुंचा। वहीं 2004 तक यानी भाजपा की सत्ता रहते हुये भी सत्ता भोग रहे स्वयंसेवक भी विभिन्न संगठनों में शिरकत किया करते थे। लेकिन सत्ता गंवाने के बाद भाजपा और आरएसएस के बीच के तार सिर्फ राजनीतिक मुद्दों को लेकर ही जुड़े। धीरे-धीरे यह संबंध ऐसे बेअसर हो चुके हैं कि संघ की किसी भी पाठशाला में भाजपा नेताओं की मौजूदगी संघियों में गुस्सा पैदा करती है और भाजपा भी संघ को अयोध्या के घेरे से बाहर देख नहीं पाती। इसलिये भाजपा की राजनीतिक बैठकों में संघ के स्वयंसेवकों की मौजूदगी दिल्ली के माडरेट राजनेताओं को दूर कर देती है। इसका पहला असर तो यही हुआ है कि आरएसएस संघ मंडलियां घटकर 5629 तक आ पहुंची हैं, जो 2003 में 7037 हुआ करती थीं। हालांकि देश के भीतर के हालातों ने संघ के महत्व को भी बढ़ाया है और 2700 से ज्यादा प्रचारकों में से करीब साढे पांच सौ प्रचारक जो अलग-अलग संगठनों में लगे हैं उनके काम बढ़े हैं। आम-आदमी से जुड़े जो मुद्दे प्रचारकों की बैठको में उठते हैं उसमें पहली बार यह सवाल भी उठे हैं कि राजनीतिक तौर पर जब भाजपा इन सवालो का सामना करने को तैयार नहीं है या फिर भाजपा सफल नहीं हो पा रही है, तो संघ को भाजपा के पीछे क्यों खड़े होना चाहिये।

भ्रष्‍टाचार और महंगाई का सवाल भाजपा ने ना सिर्फ उठाया बल्कि उसकी राजनीतिक शुरुआत असम से की। और असम के चुनाव में संघ परिवार भी भाजपा के पीछे खड़ा हुआ। यहां तक कि संघ की शाखायें भी राजनीतिक तौर पर असम में मुद्दों पर चर्चा करने लगीं। लेकिन, भाजपा का हाथ खाली ही रहा। और इस चुनावी हार ने आरएसएस के उत्तर-पूर्वी राज्यों के बोडोलैण्ड से लेकर बांग्लादेशी जैसे मुद्दों को भी सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया। यानी संघ के भीतर नया सवाल यह भी है कि जिन सामाजिक मुद्दों पर संघ ने अपनी पहचान बनायी और जिन मुद्दों पर भाजपा की सियासत में सामाजिक सरोकार के टांके लगे वही सुनहरे टांके अब संघ परिवार को भाजपा की वजह से चुभ रहे हैं। ऐसे ही सवाल किसान संघ और स्वदेशी जागरण मंच के दायरे में भी हैं। इसलिये आरएसएस अब खुद को मथने के लिये तैयार हो रहा है। और मथने के इस दौर में मुद्दों के आसरे जिन स्थितियों को संघ बनाने में जुटा है उसमें सामाजिक-राजनीतिक का ऐसा घोल भी घुल रहा है जो भाजपा के विकल्प की दिशा में बढता कदम भी हो सकता है। अन्ना हजारे के मंच पर संघ की पहल। बाबा रामदेव के साथ खडे गोविन्दाचार्य की अनदेखी कर रामदेव के उठाये मुद्दों पर स्‍वयंसेवकों को साथ खडा करने की सोच। स्पेक्ट्रम घोटाले के खिलाफ खडे सु्ब्रहमण्यम स्वामी के जरिये संघ के सवालों को धार देने का प्रयास। किसानों की त्रासदी को बिगड़ी अर्थवयवस्था से जोड़ने का प्रयास और महंगाई को समाज में बढ़ती असमानता के अक्स में देखने और दिखाने की जद्दोजेहद।

और इन सारे प्रयासों में आरएसएस कभी भी भाजपा के नेताओं या उनकी राजनीतिक शिरकत के साथ नहीं रही। तो क्या संघ राजनीतिक तौर पर भाजपा की वर्तमान जरुरतों को दूसरे आंदोलन वाले चेहरो के आसरे पूरा कर रही है। या फिर पहले आरएसएस की पारंपरिक परिभाषा को नये कलेवर में रखना चाह रही है। क्‍योंकि एक तरफ सुब्रहमण्यम स्वामी संकेत देते हैं कि हिन्दुत्व की नयी परिभाषा संघ को गढनी होगी। और सोनिया गांधी का जवाब अब भाजपा के पास नहीं है और अयोध्या में ठिठका हिन्दुत्व भी सोनिया के सेक्यूलरवाद में सेंध नहीं लगा सकता। वहीं स्वदेशी जागरण मंच से गुरुमूर्त्ति संकेत देते है कि मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था के भ्रष्‍टाचार से भाजपा इसलिये नहीं लड़ सकती क्‍योंकि उसके पास न तो वैकल्पिक इकनॉमी का कोई मॉडल है और ना ही वह खुद भ्रष्‍टाचार से मुक्त है। जबकि आरएसएस को स्वदेशी मॉडल को बदलना होगा। यही सवाल मजदूर संघ को लेकर भी हैं। क्‍योंकि मनमोहन सिंह की अर्थवयवस्था में जब ट्रेड यूनियन ही मायने नही रख पा रही है और बाजार अर्थव्यवस्था पर नकेल कसने का सवाल खडा करने वाली वाम सत्ता को भी जब जनता ने ध्वस्त कर दिया तो फिर आरएसएस की संख्या किसी भी राजनीति पार्टी को कितना लाभ पहुंचा सकती है। अब यह भाजपा भी जान रही है और संघ भी। इसलिये संघ के सामने नया सवाल यही है कि संघ के मुद्दे जब तक राजनीति के केन्द्र में ना आयेंगे तबक आरएसएस के सवाल भाजपा के पीछे ही चलेगे और भाजपा कांग्रेस की कार्बन कापी ही नजर आयेगी। इसलिये आरएसएस के भीतर नयी वैचारिक उठा-पटक उन मुद्दों के आसरे अपने संगठनो को खड़ा कर राजनीति की धारा को अपने अनुकूल करने की ही है।

संघ समझ रहा है कि राजनीतिक तौर पर 1974 की तर्ज पर जेपी का कोई राजनीतिक प्रयोग तो संभव नहीं है, लेकिन बाबा रामदेव के आसरे ही सही अगर संघ को जगाया जा सकता है और सरकार को चेताया जा सकता है तो 2014 तक भाजपा के बदले एक नया राजनीतिक संगठन भी खड़ा किया जा सकता है, जो राजनीतिक दल के तौर पर मान्यता पाये और विकल्प भी बने। क्‍योंकि मनमोहन सरकार से आम आदमी को मोह भंग हो चुका है, लेकिन काग्रेस का विकल्प भाजपा हो इसे लोग स्वीकारने की स्थिति में नहीं हैं। और संघ अब भाजपा को शह देने की स्थिति में भी नहीं है। नयी परिस्तितियों में रामदेव हों या अन्ना हजारे, हर किसी को आंदोलन के लिये जो संगठन चाहिये वह सिर्फ आरएसएस के पास है, और नयी परिस्थितियां पहली बार संघ को उसी दिशा में ले जा रही है जहां रेड्डी बंधुओ पर आपस में भिड़ी भाजपा को दफन किया जा सके और संघ ही एक वैकल्पिक सोच का आईना बने । जहां भविष्य में संघ में किसी मुद्दे को लेकर अयोध्या की तर्ज पर ठहराव ना हो। और नयी पीढी यानी युवा तबका संघ को पारंपरिक ना मान कर भारतीय सामाजिक परिस्थितियों को वैज्ञानिक तरीके से अपने अनुकुल पाये, और संघ की पहल इसी सोच को जोड़ते हुये उन खतरों को उठाते चले जो देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था पर ही सवालिया निशान लगाये हुये हैं। पहला प्रयोग बाबा रामदेव से शुरू होना है इसलिये इंतजार कीजिये। क्‍योंकि संघ का नया रास्ता इससे भी तय होगा लेकिन संघ जीते या हारे दोनों स्थितियों में भाजपा खतरे में है यह तो तय है                                                                                                                                                                                            साभार -पुण्य प्रसून बाजपेयी

No comments:

Post a Comment