Friday 17 June 2011

क्यों कॉमर्स का कट ऑफ ज़्यादा होता है?


क्या  यह सही है कि कॉमर्स एक विधा नहीं है? एकेडमिक डिसिप्लिन। सांख्यिकी,अर्थशास्त्र और गणित जैसे कई विषयों को मिला कर वाणिज्य विषय को गढ़ा गया है। इस पर आपके पास जानकारी हो तो ज़रूर शेयर करें लेकिन कुछ लोगों से बात करने पर यही पता चला कि बाहर के मुल्कों में भी ऑनर्स कोर्स में कॉमर्स नाम का विषय नहीं होता है। अगर यह जानकारी ग़लत पाई गई तो मैं अपने लेख में संशोधन कर लूंगा। बहरहाल इस बात पर विचार करना चाहिए कि कॉमर्स के लिए इतनी मारा मारी क्यों हैं?

दिल्ली विश्वविद्लाय में कॉमर्स में दाखिला लेने के लिए कामर्स विषय वालों को प्राथमिकता दी जाती है। उन्हें सीट मिले इसलिए दूसरे विषय यानी साइंस से जब कोई बच्चा कॉमर्स में आता है तो उसे हतोत्साहित करने के लिए अधिक नंबर मांगे जाते हैं ताकि कॉमर्स वालों को पहले एडमिशन मिल जाए। इसी तरह से जब कॉमर्स के बच्चे दूसरे विषयों में दाखिला लेने जाते हैं तो उनके नंबर में दो से तीन परसेंट की कमी कर दी जाती है ताकि उन्हें इतिहास,गणित या अन्य विषयों में आने से रोक सकें। इसके पीछे सोच यही है कि कॉमर्स पढ़ने वालों की ट्रेनिंग अकादमिक नहीं होती। वे इतिहास या राजनीति शास्त्र में आकर अच्छा नहीं कर पाते हैं क्योंकि उन्हें लंबे-लंबे लेख पढ़ने का अभ्यास नहीं होता। दिलचस्पी बनने में काफी वक्त लग जाता है। अपवाद के तौर पर कुछ ही बच्चे कॉमर्स से इतिहास या समाजशास्त्र में आकर बेहतर कर पाते हैं। इसीलिए कॉमर्स कॉलेजों की ज़िम्मेदारी हो जाती है कि वे पहले अपने विषय के बच्चों का दाखिला करें। इसीलिए एसआरसीसी और एलएसआर में कटऑफ ज़्यादा होता है। कॉमर्स के अच्छे कॉलेज कम है और रोज़गारपरक बाज़ारू शिक्षा के नाम पर कम पढ़ने लिखने वाले छात्रों की तादाद ज्यादा। ऐसा विषय हो जो नौकरी भी दे और थोड़ा-थोड़ा सारे विषयों को पढ़ने का अवसर भी दे दे। कॉमर्स से अच्छा कोई विकल्प नहीं है। बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन, मैनेजमेंट और बैंकों की नौकरियों में कामर्स काफी उपयोगी विषय हो गया है।

अब रही बात कि इस साल सौ परसेंट वाला कट ऑफ क्यों गया? वो इसलिए कि सिब्बल साहब और वाइस चांसलर साहब दिल्ली विश्वविद्यालय को कबाड़ करने के अभियान में लगे हुए हैं। सेमेस्टर सिस्टम के अलावा इस बार दाखिले की प्रक्रिया में बदलाव हुआ। पहले क्या होता था? पहले बच्चे फार्म भरते थे। हालांकि इसे लेकर कॉलेज दुकानदारी करने लगे थे। खैर फार्म भरने के बाद अमुक विभाग को अंदाज़ा हो जाता था कि पहले लिस्ट में कितने बच्चों को आने दिया जाए। इस बार यह व्यवस्था खत्म कर दी गई। यह कहा गया कि जो भी कट ऑफ निकलेगा उसमें आने वाले सभी बच्चों को दाखिला देना पड़ेगा। अगर चालीस सीट है और कट ऑफ के बाद सौ बच्चे आ गए तो सौ के सौ को दाखिला देना होगा। अब यहां सुविधाओं और टीचर-छात्र के अनुपात का सवाल गया चूल्हे में। तो किसी भी कॉलेज को इस बार पहले से मालूम नहीं था कि अमुक विषय में कितने कट ऑफ वाले बच्चों ने अप्लाई किया है। इसलिए उन्होंने कट ऑफ को इतना ज्यादा कर दिया कि पहले लिस्ट में उन्हें अंदाज़ा हो सके। सिर्फ इसकी वजह से बच्चों को परेशानियां झेलनी पड़ गईं।

पढ़ाई माइग्रेशन का दूसरा बड़ा कारण है। देश भर के कॉलेज कबाड़ हो गए हैं। अगर नहीं भी हैं तो उन्हें अच्छे विद्यार्थी कबाड़ ही समझने लगे हैं। दिल्ली में पढ़ने के साथ प्रतिष्ठा का भी भाव जुड़ा होता है। राज्यों ज़िलों के कॉलेजों में कुछ अच्छे और प्रयत्नशील शिक्षकों को छोड़ दें तो बाकी सब राम भरोसे आते हैं और राम भरोसे चले जाते हैं। हम इस विषय को लेकर परेशान इसलिए नहीं होते कि फायदा नहीं। उससे पहले ट्रेन का टिकट कटा लेते हैं। मैं भी इसी सिस्टम के तहत रातों रात अपने कमरे से उजाड़ कर दिल्ली भेज दिया गया। राज्यों के अच्छे कालेजों के कट ऑफ पता कर रहा था। कहीं भी सत्तर अस्सी फीसदी से ज्यादा नंबर नहीं जाता। उनके ख़राब कालेजों में औसत विद्यार्थियों की भरमार है। ९८ परसेंट वाले इन कॉलेजों को किसी लायक नहीं समझते। यह चिन्ताजनक हालात है। कपिल सिब्बल दिल्ली के दो कालेज के कट ऑफ पर बयान तो दे देते हैं मगर बाकी कालेजों के लिए वक्त नहीं। पता कीजिए देश का मानव संसाधन मंत्री पिछले कुछ सालों में कितने केंद्रीय विश्वविद्यालयों के दौरे पर गया है। उनके कामकाज की समीक्षा की है। वकील हो जाने से हर मुकदमे के जीत लेने की गारंटी नहीं मिल जाती। दलील बर्तन बजाने से नहीं बजती, उसके आधार भी होने चाहिएं।
--साभार कस्बा 

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