Saturday 26 March 2011

शुभस्ते पंथान:


उसने कहा विनम्र बनो
मैं डरपोक हो गया.
उसने कहा संतोष बड़ा धन है
मैं आलसी और गरीब हो गया.
उसने कहा निडर रहो
मैं असभ्य हो गया.
जब निर्भय होने को कहा
मैं आक्रामक हो गया.
उसने सदा अस्मिता की बात की
मैं अहंकारी हो गया.
उसने कहा चुप रहना अच्छी बात है
मैं गूंगा हो गया.
जब खुल कर बोलने को कहा
मैं अमर्यादित हो गया.
उसने कहा स्पष्टवादी बनो
मैं दिल दुखाने लगा.
उसने समझदार बनाने की सलाह दी
मैं चतुर और चालाक बन गया.
उसने कहा द्रढ़ रहो
मैं जिद्दी हो गया.
उसने कहा काम आराम से करना चाहिए
मैं पूरा सो गया.
उसने कहा विफलता इतनी बुरी नहीं होती
मैंने प्रयास छोड़ दिए, विफलता की आदत डाल ली.
उसने कहा सांप मत बनना
मैं केंचुआ बन गया.
उसने अहिंसा को बड़ा गुण बताया
मैं पत्ता-गोभी बन गया.
उसने कहा भगवान् है
मैं निट्ठल्ला हो गया.
उसने कहा सब कुछ भगवान् थोड़े ही देखता है
मैं चोर बन गया.
वह कुछ कहता रहा
मैं कुछ बनता गया
मैं समझाने लगा
वह माना नहीं.
फिर मुझे भी गुस्सा आ गया
मुझे आदमी ही रहने दो
देवता क्यों बनाते हो
ये दुनियां किताबी बातों से नहीं चलती.
वह रुका और कहा-मैं तो खुद आदमी बनने की राह का पथिक हूँ
आपको देवता क्या बनाऊंगा?
आपने कुछ पूछा जरूर होगा
लेकिन कहा मैंने खुद से है
आपने सुन लिया होगा,
पर अमल तो मुझे करना है
आप जैसे भी हो, प्यारे हो
अपने हिसाब से इंसानियत की राह पर हो.
लेकिन यहाँ से मेरी राह जुदा होती हैं
चाहो तो साथ चलो, क्योंकि मंजिल तो एक ही है
अलग चले तो फिर मिलेंगे
साथ रहे तो साथ हैं ही.
विदा दोस्त! आपके साथ सफ़र बहुत अच्छा रहा
शुभस्ते पंथान:
और वह गुनगुनाता हुआ मुड़ गया.
मुझे जीत की इतनी खुशी नहीं हुई
जितना उसके बिछुड़ने का गम.
सोचा भी चल पडूँ उसी के साथ
या फिर पुकार लूं अपनी ही राह पर.
सोचता खड़ा रहा फिर चल पड़ा अपनी ही डगर.
कानों में अब भी उसकी गुनगुनाहट गूंजती है
जो कोई भजन नहीं था
एक फ़िल्मी गाना था
(ज्योति कलश छलके !!...शायद!)
कभी कभी उसकी याद बड़ी शिद्दत से आती है
उसकी बातें आँखों के सामने मुस्कुरातीं हैं
कभी कभी वह हमराह चलता दिखाई भी देता हैं
पर वो भरम है.
में अपनी बात पे कायम हूँ
उसकी पता नहीं क्या जिद है?
मेरी बला से! साभार हिन्द -युग्म 

 

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