Friday 27 May 2011

स्वर हीनता के दौर में किसानी


                    

      

   -के.बाबला 
भारत की 2020 में वैश्विक स्थिति क्या होगी इस पर लगातार प्रधानमंत्री से लेकर विद्यालयों के प्राचार्य अपना मत प्रकट करते इन दिनों मिल जाएंगे। पर इस सबसे बड़े लोकतन्त्र में, सबसे बड़ी आबादी वाले कृषक समाज की ख़ोज-ख़बर लेने वाला कोई नहीं दिखता। जब प्रथम पंच वर्षीय योजना के प्रारूप को विनोवा भावे के सामने ले जाया गया तो उन्होने पूछा था इसमें किसान कहाँ है? अगर वर्ष 2011-12 के बजट के समय तक विनोवा ज़िंदा रहते तो निश्चित रूप से उनका प्रश्न कुछ इस तरह का होता- क्या इस देश में अब किसान नहीं रहते हैं? वर्तमान बजट के कुल हिस्से में मात्र 2% खेती-किसानी के लिए रखा गया है। आर्थिक उदारीकरण ने जहां किसानों कि कमर तोड़ दी वहीं सरकारी उदासिनता से ग्रस्त किसान अब लाचार हो गए हैं आत्महतयाएं करने को। पर क्या आत्महत्या उसी समय मानी जाएगी जब अपनी इह लीला समाप्त करने वाला किसान सरकारी तौर पर कर्ज़ में डूबा हो? क्या उसी किसान को खुद को मारने वाला कहा जाएगा जिसमें ऐसा करने की इच्छा थी और क्या आत्महत्या जानबूझकर स्वयं को मारना है? कोई भी किसान आत्महत्या एकदम तात्कालिक कारणों से नहीं करता बल्कि उसके निर्णय के पीछे पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक दवाब काम करते हैं। विभिन्न संस्थाओं और व्यक्तियों द्वारा आत्महत्याओं के कारणों की अनेक प्रकार से व्याख्या की गयी है। सरकार ने इन आत्महत्याओं का कारण मुख्यत फसल बिगड़ जाने को माना है। आत्महत्याओं से निपटने के लिए सरकार दो तरीके से काम करती है। अव्वल पैकेज की घोषणा कर दूसरा दोयम किसानों को मनोवैज्ञानिक मदद देने के लिए आत्मविश्वास जागृति अभियान के तहत भजन-कीर्तन करा कर। दुर्भाग्य से इन सभी उपायों ने देश में छोटे-बड़े 85% किसानों के व्यवस्थातमक प्रकृति को नज़र अंदाज़ किया गया है। किसान नेता विजय जावधिया के आनुसार- जिस संकट ने किसनों को आत्महत्याएँ करने को मजबूर किया है उसके मुख्य दो कारण है। लागत बढ़ने से आर्थिक तंगी और देश के बाज़ारों को दुनिया के लिए खोलने के कारण फसलों की कीमतों में उतार चढ़ाव है।
किसान के लिए आवाज़ उठाने वालों की संख्या नाम मात्र की रह गई है बौद्धिक वर्ग, समाजसेवी और नेता किसानी की समस्या को चूल्हा समझ पनी रोटियाँ सेंकने में लगे हैं। जो भी आंदोलन हुए वे किसानों के लिए नहीं बल्कि भूमिहीन मज़दूरों के लिए, किसान मज़दूरों के लिए हुए। जिसमें हमेशा ही किसान शोषक ठहराकर उसको दुर्लक्षित किया गया। उसकी समस्याओं को लेकर कभी कोई आंदोलन हुआ ही नहीं। गत 60 सालों में किसानों का यह लोकतन्त्र किसानों के लिए कोई ठोस योजना बनाने में नाकामयाब रहा है। मार्क्सवादी विचारधारा में कहा गया था कि किसान मजदूरों का शोषण कर पूंजी का निर्माण करते है, लेकिन आज किसानी के रॉ माटेरियल के शोषण से पूंजी का निर्माण हो रहा है। कृषि आंदोलनों के दौर में एक मात्र शरद जोशी जी ने यह बात राष्ट्र के सामने राखी थी।
आत्महत्या एक प्रक्रिया है जो सालों से किसानों की अनदेखी के करणों का परिणाम है। किसान आत्महत्या को समझने के लिए किसानों के परिवेश को समझना जरूरी है। भूमंडलीकरण से पहले महराष्ट्र के किसान आनज उपजाने पर ध्यान देता था तथा पूरक के तौर पर किसान के पास पशुपालन थी। जिसके चारे की पूर्ति फसल के सह-उत्पाद से ही हो जाता था, यदि फसल खराब भी होती थी तो किसान पशुपालन से अपना जीविकोपार्जन कर लेता था। फिर 1991 में भूमंडलीकरण का दौर आने के साथ किसान को मार्केट नीति के अनुसार कैश क्राप उपजाने के लिए प्रोत्साहन दिया जाने लगा। आनज की खेती कम हो गई। पशुपालन खुद ब खुद किसान से दूर होता चला गया। भूमंडलीकरण आपने साथ वर्चस्व का बाज़ार, लाभ आधारित संबंधों पर बनी एकल संस्कृति लेकर आता है। यही वो समय था जब युवा किसान खेती छोड़ शहर का रुख कर रहे थे। गावों में खेती के लिए ज़मीन तो थी पर लोगों का शहर की ओर पालयन जारी रहा। खेती मजदूरों के आसरे होने लगी। अब भूमंडलीकरण का असर खेती पर भी दिखने लगा था मजदूरी दर बढ़ चुकी थी लेकिन आनज और सस्ता होता जा रहा था।
खेती तो हमेशा से ही किसानों के लिए जुआ ही रही है पर नकदी फसल के प्रचलन ने इसके रिस्क फैक्टर को और बढ़ा दिया। कृषि संसाधन सही हो तभी अच्छी फसल की उम्मीद कर सकते हैं। हानिकारक उर्वरक, कीटनाशक से खेत की उपजाऊ शक्ति कम हो जाते हैं। किसान को अब हर बार उर्वरक, कीटनाशक के लिए किसान को बाज़ार का रुख करने की जरूरत होती है। इन सब के बीच अगर फसल अच्छी नहीं हुई तो किसान के पास जमा पूंजी के आलवा और कुछ नहीं होता। फिर त्यौहार, बेटी की शादी के लिए पैसे की जरूरत ने किसानों को साहूकारों की चोखठ पहुचा देता है। कर्ज़ के बोझ के तले दबे हताश, निराश, किसान नशे को अपनाता है। अंत में परिस्थितियों से हारकर किसान अपनी जीवन लीला को समाप्त कर लेता है।             
 सरकारी योजनाओं की खबर लें तो ये भरी भरकम आंकड़ों के साथ हमारे सामने उपस्थित होते हैं। आत्महत्या की बढ़ती प्रवृति को रोकने के लिए सरकार ने वर्ष 2008-09 के लिए लगभग चार करोड़ किसानों के कर्ज़ माफ करने हेतु साठ हज़ार करोड़ का प्रावधान किया ताकि किसानों की खेती के प्रति रुझान बनी रहे। नेशनल सीड प्रोटेक्षण मिशन के तहत भी किसानों को बीज़, मशीन, संसाधन, नये तकनीक, प्रशिक्षण आदि की उपलब्धता प्रदान करने की कोशिश की गई है। इस मिशन पर 11वी पंचवर्षीय योजना (2007-11) के दौरान कुल परिव्यय 488.25 करोड़ का रखा गया है। इस योजना के तहत 17 प्रदेशों के 312 ज़िलों में लागू की जा रही है।
किसान को कभी से इन भारी भरकम आकड़ों से मतलब नहीं होता बल्कि धूप में अपने बदन जलाने वाला किसान खुद के दो जून की रोटी चाहता है। किसान समर्थित तमाम योजनाओं के बावजूद देश का पेट भरने वाला किसान भूखा, नंगा, अपने खेत में अपनी कब्र देखता है। जब अनाज के दाम बढ़ते हैं तब सरकार हस्तक्षेप करती है और निर्यात पर पाबंदी लगती है। जिसका नुकसान किसानों को झेलना पड़ता है। लेकिन जब दाम गिर जाते हैं तब सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करती।
किसानी के लिए किसान के पास सबसे बड़ा आसरा उसके पास अपनी ज़मीन का होना है। जब यही ज़मीन उससे छिन जाती है तो किसान की हिम्मत जबाब देने लगता है खेती उसके लिए कठिन ही नहीं अभिशाप भी हो जाती है। हमने देखा है कि हाल के कुछ वर्षों में सरकारों ने किसानों की ज़मीनों से कोई मोह नहीं दिखाया है। उसे लगातार पूँजीपतियों को सौंपा जा रहा है। इस प्रक्रिया ने किसानी की ताबूत में आखरी कील का काम किया है।  
दूसरे शब्दों में, जब किसान के पास न तो स्थिर पूंजी (ज़मीन) और न ही कार्यकारी पूंजी (बीज,खाद आदि) रह जाते हैं। तब उसके पास आत्महत्या करने के अलावा और क्या चारा रह जाता है? सर्वेक्षणों में पाया गया है कि कार्यकारी पूंजी आत्महत्याओं के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है। इस तरह के करणों से 1997 से लेकर आज तक बीस लाख से अधिक किसानों ने मौत को गले लगाया है ।
दरअसल यह दुखद है कि आज भी इस देश के आखरी आदमी तक राशन की दुकान ही नहीं पहुँच पाई है। सरकारी उदासिनता और गलत नीतियों के कारण आज एक समाज जिसने वर्षों से पूरे सभ्य समाज के भोजन संबंधी ज़िम्मेदारी को अपने सर-माथे पर लिया है, ज़िंदा रहने के लिए अपने सामाजिक वातावरण से समझौता कर मजदूर बनने को मजबूर है। क्या हम कल्पना कर सकते हैं एक कृषक विहीन समाज की? एक ऐसा समाज जहां कोई किसान नहीं होगा?

2जून 2011 D.N.A LUCKNOW संस्करण में प्रकाशित


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