Sunday 22 May 2011

बदला नहीं बदलाव की राजनीति

-के बाबला
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को माँ माटी मानुष और परिवर्तन के नाम पर मिले जनादेश ने वामदलों के चौंतीस साल पुराने अभेध्य लगने वाले किले को ढाह दिया। वाम मोर्चा विकल्पहीनता को अपनी शाश्वतता बैठा था। वाम दलों को ममता ने पतन का पाताल दिखा कर यह साबित कर दिया कि लोकतन्त्र को सत्ता के घमंडी हथियारों से दीर्घ काल तक हाँका नहीं जा सकता। जनता ने वामपंथी सरकार की हेकड़ी को तोड़ते हुए ममता के हाथों में सत्ता कि कुंजी सौंप कर यह बता दिया है कि जनता जनार्धन लोकतन्त्र में सर्वोपरि है। जनता किसी को भी अर्श से फर्श तक ला सकती है। बंगाल के चुनावों ने यह दिखा दिया है। जनता ने धमकियों और घुड़कियों को अनदेखा कर उम्मीदों को अपना मत दिया है।

 बंगाल में संघर्ष और ममता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ममता ने जनता के मुद्दों को लेकर विपक्ष में रहते हुए ही नहीं बल्कि गठबंधन सरकार में रहते हुए भी सरकारों से लड़ाइयाँ लड़ी हैं। इसी संघर्ष ने ममता को जनता की दीदी बनाया और जनता ने दादा की जगह दीदी को बंगाल का मुख्यमंत्री चुना। यह बदलाव कोई रात भर में नहीं हुआ। इसके लिए सालों का संघर्ष और ममता का जुझारू व्यक्तित्व जिम्मेदार है। इस बदलाव की झलकियाँ बंगाल में काफी पहले से ही नज़र आने लगी थीं। टीएमसी की रैलियों में बढ़ती भीड़ ही बता रही थी कि अब दीदी कि बारी है। लेकिन ममता के जीत का सबसे ज़्यादा जोश नौजवानों में दिख रहा है, जिन्होंने अपनी पैदाइश के बाद से सिर्फ लाल रंगों में रंगे फरमान ही सुने, जिनके लिए पार्टी का मतलब लेफ्ट था। बंगाल में अब यदि हारा रंग छाया है तो यह हारा रंग डालने वाले निश्चित रूप से युवा ही हैं। यह वही ममता है जो शुरुआत से अपने बागी तेवरों के लिए जानी जाती रही है। पुराने दिनों के साक्षी आज भी 1977 की ममता को नहीं भुला पाएँ पायें है, जब ममता ने जेपी के कार के आगे छलांग लगा कर अपना विरोध दर्ज़ कराया था।

जमीनी राजनीति से जुडने के लिए ममता ने 1998 में खुद को कांग्रेस से अलग किया और अपनी पार्टी बनाई। तब उन्होने पूरे बंगाल की यात्रा की। इस बीच जनता ने यह भी देखा कि कैसे सरकार के इशारे पर दीदी को बालों से खिंच कर राइटर्स बिल्डिंग से निकाला गया। अब वही राइटर्स बिल्डिंग बंगाल की प्रथम महिला मुख्यमंत्री का इंतज़ार कर रहा है। इस दौर में ममता पर कई जानलेवा हमले भी हुए जो इतिहास में पश्चिम बंगाल की राजनीतिक पतन के रूप में याद रखे जाएंगे। लेकिन ममता ने अपना संघर्ष जारी रखा और लगातार समय अंतरालों पर वाम दलों को झटके देती रहीं। ममता के धरने और उनसे मिला जनसमर्थन इस बात की तसदीक करते है चाहे वह कोलकाता में मानव अधिकारों के लिए भूख हड़ताल हो या नंदीग्राम का एतिहासिक 21 दिनों तक चला अनशन सभी उन दिनों ममता के लिए बहुमत इकट्ठा कर रहे थे। ममता ने हर गलत नीति पर हल्ला बोला और जनता की परेशानियों को सुर दिया। ममता ने वामदलों के द्वारा छले गए मुसलमानों को भी अपने भाषणों और चिंता के केंद्र रखा और ममता उन्हें यह समझाने में कामयाब रही की वो ठगे गए हैं। अपने ठगे जाने का बदला इस बार मुसलमान वोटरों ने वामदलों से ले लिया।

ममता को घरेलू नायिका समझ रहे वामपंथी सरकार अपने हार के चाहे जीतने भी तर्क गढ़े लेकिन सच तो यह है कि अगर पश्चिम बंगाल कि जनता ने दो तिहाई से ज़्यादा बहुमत दे कर ममता को चुना है, तो इसके लिए वामदलों की गलत नीतियाँ जिम्मेदार हैं। 70-80 के दशक में बंगाल में वाममोर्चा की सरकार ने सबसे बेहतरीन भूमिसुधार कानून लागू किया और वह जनता के दिलों पर राज करने लगी। इसलिए यहाँ आज भी 45 प्रतिशत लोग खेती करते हैं। उस दौरान वाममोर्चा ने अपने पार्टी कैडरों को गाँव-गाँव तक पहुंचाया। जो कालांतर में लोकतान्त्रिक समाज के दल के सदस्य के रूप में नहीं बल्कि राजाओं के करीबी के रूप में व्यवहार करने लगे। नतीजा यह हुआ कि सरकारी नीतियाँ सीपीएम के दफ्तर से क्रियान्वित होने लगी, लोगों के मुक़ाबले कैडरों को इसका फायदा मिलने लगा। एक समय में पार्टी की हालत यह थी कि कैडरों के मनमानी के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले सैफुदिन चौधरी को पार्टी से निकाल दिया गया। 34 साल के वाम शासन में एक भी जातीय हिंसा नहीं हुई लेकिन कड़वा सच यह भी है कि जिन मुसलमानों ने वाम का साथ नहीं दिया वह अब तक उपेक्षित रहे। वाम शासन के दौरान दलित पिछड़े आदिवासी लगातार हाशिये पर खड़े रहे। इन 34 सालों में कई लघु उद्योगों ने दम तोड़ा। किसान मजदूर लगातार गरीब होते चले गए। इन सब के लिए वाम मोर्चे की गलत नीतियाँ जिम्मेदार हैं। क्योंकि साढ़े तीन दशक का शासन काल कम नहीं होता। अगर राजनीतिक इच्छा शक्ति हो तो सरकारें विकास की गंगा बहा राज्य को समृद्ध कर सकती है, लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि विकास करना तो दूर वाममोर्चा विकास का स्वरूप तक इन साढ़े तीन दशकों में निर्धारित नहीं कर सकी पश्चिम बंगाल में दीर्घ कालिक वाममोर्चा सरकार की हर योजना को कार्यकर्ताओं की लालच ने लील लिया।


ममता की जीत के साथ ही उनके लिए वास्तविक चुनौतियाँ प्रारंभ होंगी। राज्य में नौकरियों की भारी किल्लत है, जिसके ख्वाब दिखा कर वो मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंची है, इन ख्वाबों को पूरा करना ममता के लिए बड़ी चुनौती है, भ्रष्टाचार सरकारी तंत्र को अंदर तक खा चुका है। निवेशक ममता के जन आंदोलनों से बिदके हुए हैं, बिजली की कमी है और जो है, बहुत महंगी है। राज्य पर फिलहाल 2 लाख करोड़ का कर्ज़ है इसे चुकता करते हुए राज्य को आत्मनिर्भर बनाना ममता के लिए चुनौती होगी। वहीं राज्य में जारी वित्य संकट को दूर करने के लिए केंद्र से मिलकर वित्य पुनर्निर्माण पैकेज तैयार करने की कोशिश करनी होगी। राज्य में मँझोले एवं लघु उद्योगों को नए सिरे से बसाने का प्रयास करना होगा। साथ ही उद्योग और कृषि को साथ लेकर चलना होगा इससे ममता अपनी उद्योग विरोधी छवि को भी तोड़ सकेंगी। ममता को सियासत की चाभी चाहे जितनी आसानी से मिली हो पर बंगाल का यह ताज उनके लिए कांटों भरा होगा। ममता को यह समझना होगा की वामदल के पीछे एक विचारधारा वाली राजनीति काम कर रही है। जिसके बरक्स अगर जनता ने ममता को चुना है तो इसलिए क्योंकि ममता की बातों में जहां जनवादिता की खुशबू है वहीं उनके वादों में एक समृद्ध बंगाल झलकता है।  समृद्धि के इस सपने को सकार करने का दुरह काम ममता को करना है और वह भी वाम दलों से कम समय में।


2 MAY 2011 D.N.A LUCKNOW संस्करण में प्रकाशित

1 comment:

  1. उम्दा!!i should quote it as"a good method writing".you are evolving and putting ur efforts which is being displayed in your write-ups.although few grammatical and spelling mistakes creeps in, yet utmost care has been taken to maintain factual and conceptual accuracies.keep it up!!

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