Saturday 30 July 2011

आपकी टाई उनका फंदा

  
देश के अव्वल राज्यों की सूची में आने वाला महाराष्ट्र आज किसान आत्महत्या के कलंक से कलंकित हो गया है।11जिलों वाले पूर्वी महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र तीन सौ सालों से राजनीतिक,आर्थिक और सामाजिक जनांदोलनों का केंद्र रहा है। कभी विदर्भ के किसान होने के साथ जो सम्मान और गरिमा जुड़ी हुई थी वह आज आशाहीनता और हताशा में बादल गई है। कपास,सोयाबीन और संतरा के लिए पहचाना जाने वाला विदर्भ के नाम के साथ आज स्वत: ही किसान आत्महत्याओं की तस्वीर दिमाग में कौंधने लगती है। विदर्भ में कपास को सफ़ेद सोना कहा जाता है पर विदर्भ की खेती और विदर्भ के किसान, आज औद्योगिक सभ्यता के प्रमुख निशाने पर हैं। जून 2005से अब तक विदर्भ क्षेत्र में मौत को गले लगाने वाले किसानों की कुल संख्या 7860 हो चुकी है। सूखाजल संकट,चाराभोजन और बेरोजगारी का संकट विदर्भ में 15,460 गांवों तक पहुंच चुकी है। जून 2006 में केंद्र सरकार की ओर से घोषित किसानों के लिए राहत पैकेज भी किसानों के लिए लाभकारी नहीं रहे। महाराष्ट्र सरकार ने जिन गांवों को सूखाग्रस्त घोषित किया है,उनके लिए चलाए जा रहे राहत कार्य कागजों तक ही सीमित हैं। सूखा पडऩे से मवेशियों के लिए चारे का संकट गंभीर हो गया है। लोग अपने पशु कसाइयों के हाथों में बेच रहे हैं। चारा संकट के कारण मवेशी भी असमय काल के गाल में समा रहे हैं। विदर्भ के मामले में प्रधानमंत्री ने स्वयं हस्तक्षे कर किसानों को सिंचाई का पर्याप्त पानीमुफ्त स्वास्थ्य सेवाखाद्य सुरक्षाग्रामीण रोजगार आदि की उपलब्धतासुनिश्चित कराई जिससे किसान आत्महत्या रूक सके। बावजुद  समस्या जस की तस बनी हुई है। यहाँ की 60% खेती आज भी मौसम की मेहरबानी पर निर्भर है, हालांकि सरकार ( सिंचाई विभाग) हर खेत तक सिंचाई सुविधा उपलब्ध करने की बात तो करता है पर ये दावे कागजों तक ही सीमित रह जाते है।विदर्भ में आज भी 90 प्रतिशत खेती असिंचित है। असिंचित खेती को कोई प्रत्यक्ष सबसिडी नहीं है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में फसल मारी जाएगी और नकदी फसलों की खेती करने वाले किसानों पर कर्ज का बोझ बढ़ेगा। राज्य की दूसरी गंभीर समस्या है बिजली की कटौती। विदर्भ में स्थापित विद्युत ईकाइयों से उत्पादित बिजली से दूसरे राज्यों के शहर रौशन होते हैं। जबकि विदर्भ का किसान को सिंचाई के लिए भी बिजली नहीं मिल पाती है. विदर्भ मे अब बिजली और सिंचाई की समस्या एक दूसरे में गुंथ चुके हैं। किसान बीज, उर्वरककीटनाशक के लिए कर्ज़ लेता है। फसल अच्छी नहीं होने के कारण साहूकारों को कर्ज़ नहीं चुका पता है और आत्महत्या जैसा कठोर कदम उठता है।  बैंकों द्वारा ऋण बांटे जाने की प्रकीर्य इतनी जटिल है कि आज भी 60% से ज़्यादा किसान साहूकार की चंगुल से बच नहीं पाते है। कर्ज़ माफी की बात कर ले तो सरकार ने हाल ही में 1075 करोड़ का कर माफ़ी कर पूरे देश में अपने को किसानों का हितैषी बता रही है जब कि असलीयत कुछ और ही बयां करती है। सरकार ने 1075 करोड़ का कर्ज़ तो जरूर माफ कर दिया है. साथ ही साथ किसानों को 17000 करोड़ का बोनस देना बंद कर दिया यानि पैकेज दे कर पॉलिसी को बंद कर दिया गया। आमूमन विदर्भ में किसान के पास कम से कम 4 से 5 एकड़ ज़मीन है। इतनी ज़मीन होने के बावजूद भी उन पर प्रति व्यक्ति 50 से 60 हजार का कर्ज रहता है। पश्चिमी महाराष्ट्र में किसानों के पास खेत कम हैं पर उन पे प्रति व्यक्ति कर्ज 2 से 5 लाख तक होता है। सरकार की पूरी कर्ज़ माफी की प्रकीर्य बंकों से लिए गए ऋण के अनुसार होती है। इन सब का ज़्यादा लाभ पश्चिमी महाराष्ट्र के लोगों को लाभ पहुंचाने के उदेश्य से किया जाता रहा है. इन नीतियों के जरिये विदर्भ के किसानों के साथ सोतेला व्यवहार किया जाता रहा है। हर बार नीतियाँ ऐसी बनाए जाते हैं कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पश्चिमी महाराष्ट्र को फायदा मिले। नतीजतन किसान आत्महत्या की राह अपनाते हैं, खासकर उस स्थिति में जब प्रधानमंत्री द्वारा घोषित विशेष राहत पैकेज और सरकारी कर्जमाफी की योजना विदर्भ के किसानों को संकट से उबारने में असफल सिद्ध हो रही है। इन सब के साथ किसान के परिवारों को मुफ्त में बीमारियाँ, कुपोषण का सामना करना पड़ता है। संतरा, रबी, कपास, बाजरा, आदि फसलों के लिए मशहूर विदर्भ आज सरकारी उदासिनता, बाज़ार की नीतियों,मौसम की मार और साहूकार या बैंकों के दबाबों के कारण किसान आत्महत्या की राजधानी बन गया है। जबकिमहाराष्ट्र की फलती-फूलती राजधानी और देश की वित्तीय राजधानी मुंबई को देखें जो विदर्भ से मात्र 700 कि.मी. की दूरी है पर दोनों के हालातों में ज़मीन आसमान का फर्क है।    
मीडिया के कुछ एक सस्थान को छोड़ हाल के वर्षों में मीडिया की जो भाषा और बंगीमा बनी है उसमें जन साधारण की अभिव्यक्ति को साधारण ही माना जाता है। आज खेती किसानी करने वाले लोग मीडिया की नज़र मेंनत्था’ से बड़ी कीमत नहीं रखते। उनके मरने की खबर उनके लिए बस एक सेलेबल न्यूज़ आइटम है जो जिसे अगले दिन राखी सावंत के ठुमके पर लुटाया जा सकता है।
हम जो कुछ पढ़ते-देखते-सुनते हैं वह सिर्फ एक आभासी चेहरा है असल राजनीति और उसका अर्थशास्त्र तो समाज के कुछ खास वर्गों के हाथों में जो तय करते हैं की 
रस्सी कब गले की टाई होगी और कब फांसी का फंदा

-30-7-11 D.N.A LUCKNOW में प्रकाशित-

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