Wednesday, 7 December 2011

कठघरे में पत्रकार क्यों?

                                                                       
अंडरवर्ल्ड के कठघरे में एक पत्रकार मारा गया। और मारे गये पत्रकार को अंडरवर्ल्ड की बिसात पर प्यादा भी एक दूसरे पत्रकार ने बनाया। और सरकारी गवाह भी एक तीसरा पत्रकार ही बना। यानी अंडरवर्ल्ड से जुड़ी खबरों को नापते-जोखते पत्रकार कब अंडरवर्ल्ड के लिये काम करने लगे यह पत्रकारों को पता ही नहीं चला। या फिर पत्रकारीय होड़ ही कुछ ऐसी बन चुकी है, जिसमें पत्रकार अगर खबर बनते लोगों का हिस्सा नहीं बनता तो उसकी विश्नसनीयता नहीं होती। यह सवाल ऐसे मौके पर सामने आया है जब मीडिया की विश्वसनीयता को लेकर सवाल और कोई नहीं प्रेस काउंसिल उठा रहा है। और पत्रकार को पत्रकार होने या कहने से बचने के लिये मीडिया शब्द से ही हर कोई काम चला रहा है, जिसे संयोग से इस दौर में इंडस्ट्री मान लिया गया है और खुले तौर पर शब्द भी मीडिया इंडस्ट्री का ही प्रयोग कया जा रहा है। 

तो मीडिया इंडस्ट्री पर कुछ कहने से पहले जरा पत्रकारीय काम को समझ लें। जो मुंबई में मिड डे के पत्रकार जे डे की हत्या के बाद एशियन ऐज की पत्रकार जिगना वोरा की मकोका में गिरफ्तारी के बाद उठा है। पुलिस फाइलों में दर्ज नोटिंग्स बताती हैं कि मिड डे के पत्रकार जे डे की हत्या अंडरवर्ल्ड डॉन छोटा राजन ने इसलिये करवायी क्योंकि जे डे छोटा राजन के बारे में जानकारी अंडरवर्ल्ड के एक दूसरे डॉन दाउद इब्राहिम को दे रहा था। एशियन ऐज की पत्रकार जिगना वोरा ने छोटा राजन को जेडे के बारे में फोन पर जानकारी इसलिये बिना हिचक दी क्योंकि उसे अंडरवर्ल्ड की खबरों को बताने-दिखाने में अपना कद जेडे से भी बड़ा करना था। दरअसल, पत्रकारीय हुनर में विश्वसनीयता समेटे जो पत्रकार सबसे पहले खबर दे दे, उसका कद बड़ा माना ही जाता है। जब मलेशिया में छोटा राजन पर जानलेवा हमला हुआ और हमला दाउद इब्राहिम ने किया तो यह खबर जैसे ही अखबार के पन्नो पर जेडे ने छापी तो समूची मुंबई में करंट दौड़ पड़ा। क्योंकि अंडरवर्ल्ड की खबरों को लेकर जेडे की विश्वसनीयता मुंबई पुलिस और खुफिया एजेंसियों से ज्यादा थी। और उस खबर को देखकर ही मुंबई पुलिस से लेकर राजनेता भी सक्रिय हुये। क्योंकि सियासत के तार से लेकर हर धंधे के तार अंडरवर्ल्ड से कहीं ना कहीं मुबंई में जुड़े हैं। यानी अंडरवर्ल्ड से जुड़ी कोई भी खबर मुंबई के लिये क्या मायने रखती है और अंडरवर्ल्ड की खबरों को बताने वाले पत्रकार की हैसियत ऐसे में क्या हो सकती है, यह समझा जा सकता है। 

ऐसे में बड़ा सवाल यहीं से खड़ा होता है कि पत्रकार जिस क्षेत्र की खबरों को कवर करता है क्या उसकी विश्वसनीयता का मतलब सीधे उसी संस्थान या व्यक्तियों से सीधे संपर्क से आगे का रिश्ता बनाना हो जाता है। या फिर यह अब के दौर में पत्रकारीय मिशन की जरुरत है। अगर महीन तरीके से इस दौर के पत्रकारीय मिशन को समझें तो सत्ता से सबसे ज्यादा निकट पत्रकार की विश्वसनीयता सबसे ज्यादा बना दी गई है। यह सत्ता हर क्षेत्र की है। प्रधानमंत्री जिन पांच संपादकों को बुलाते है, अचानक उनका कद बढ़ जाता है। मुकेश अंबानी से लेकर सुनील मित्तल सरीखे कारपोरेट घरानो के नये वेंचर की जानकारी देने वाले बिजनेस पत्रकार की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। मंत्रिमंडल विस्तार के बारे में पहले से जानकारी देने और कौन मंत्री बन सकता है, इसकी जानकारी देने वाले पत्रकार का कद तब और बढ़ जाता है, जब वह सही होता है। लेकिन क्या यह संभव है कि जो पत्रकार ऐसी खबरे देते हैं, वह उस सत्ता के हिस्से न बने हों, जहां की खबरों को जानना ही पत्रकारिता के नये मापदंड हों। और क्या यह भी संभव है जब कॉरपोरेट या राजनीतिक सत्ता जिस पत्रकार को खबर देती हो उसके जरीये वह अपना हित पत्रकार की इसी विश्सवनीयता का लाभ न उठा रही हो। और पत्रकार सत्ता के जरीये अपने हुनर को तराशने से लेकर खुद को ही सत्ता का प्रतीक ना बना रहा हो। 

यह सारे सवाल इसलिये मौजूं हैं क्योंकि राजनीतिक गलियारे में कॉरपोरेट दलालों के खेल में पत्रकार को कॉरपोरेट कैसे फांसता है, यह राडिया प्रकरण में खुल कर सामने आ चुका है। यहां यह सवाल खड़ा हो सकता है कि एशियन ऐज की पत्रकार जिगना वोरा पर तो मकोका लग जाता है क्योंकि अंडरवर्ल्ड उसी दायरे में आता है, लेकिन राजनीतिक सत्ता और कॉरपोरेट के खेल में कभी किसी पत्रकार के खिलाफ कोई एफआईआर भी दर्ज नहीं होती। क्या सत्ता को मिले विशेषाधिकार की तर्ज पर सत्ता से सटे पत्रकारों के लिये भी यह विशेषाधिकार है। 

दरअसल, पत्रकारीय हुनर की विश्वसनीयता का ही यह कमाल है कि सत्ता से खबर निकालते निकालते खबरची भी अपने आप में सत्ता हो जाते हैं। और धीरे धीरे खबर कहने-बताने का तरीका सरकारी नीतियों और योजनाओं को बांटने में भागेदारी से जा जुड़ता है। यह हुनर जैसे ही किसी रिपोर्टर में आता है, उसे आगे बढ़ाने में राजनेताओं से लेकर कॉरपोरेट या अपने अपने क्षेत्र के सत्ताधारी लग जाते हैं। और यहीं से पत्रकार का संपादकीकरण होता है जो मीडिया इंडस्ट्री का सबसे चमकता हीरा माना जाता है । और यहां हीरे की परख खबरों से नहीं मीडिया इंडस्ट्री में खड़े अपने मीडिया हाउस को आर्थिक लाभ दिलाने से होता है। यह मुनाफा मीडिया हाउस को दूसरे धंधों से लाभ कमाने की तरफ भी ले जाता है और दूसरे धंधे करने वालों को मीडिया हाउस के धंधे में ला कर काली समझ को विश्वसनीय होने का न्यौता भी देता है। 

हाल के दौर में न्यूज चैनलों का लाइसेंस जिस तरह चिट-फंड करने वाली कंपनियो से लेकर रियल-इस्टेट के धुरंधरों को मिला, उसकी नब्ज कैसे सत्ता अपने हाथ में रखती है या फिर इन मालिकान के न्यूज चैनल में पत्रकारिता का पहला पाठ भी कैसे पढ़ा जा सकता है, जब लाइसेंस पाने की कवायद में समूची सरकारी मशीनरी ही फ्रॉड तरीके से चलती है। मसलन लाइसेंस पाने वालो की फेरहिस्त में वैसे भी हैं, जिनके खिलाफ टैक्स चोरी से लेकर आपराधिक मामले तक दर्ज हैं। लेकिन पैसे की कोई कमी नहीं है और सरकार के जो नियम पैसे को लेकर लाइसेंस पाने के लिये चाहिये उसमें वह फिट बैठते है, तो लोकतांत्रिक देश में किसी भी नागरिक को यह अधिकार है कि वह कोई भी धंधा कर सकता है। लेकिन यह परिस्थितियां कई सवाल खड़ा करती हैं, मसलन पत्रकारिता भी धंधा है। धंधे की तर्ज पर यह भी मुनाफा बनाने की अर्थव्यवस्था पर ही टिका है। या फिर सरकार का कोई फर्ज भी है कि वह लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को बनाये-टिकाये रखने के लिये पत्रकारीय मिशन के अनुकुल कोई व्यवस्था भी करे।

दरअसल इस दौर में सिर्फ तकनीक ही नहीं बदली या तकनीक पर ही पत्रकार को नहीं टिकाया गया बल्कि खबरों के माध्यम में विश्वसनीयता का सवाल उस पत्रकार के साथ जोड़ा भी गया और वैसे पत्रकारो का कद महत्वपूर्ण भी बनाया गया जो सत्तानुकुल या राजनेता के लाभ को खबर बना दें। अखबार की दुनिया में तो पत्रकारीय हुनर काम कर सकता है। लेकिन न्यूज चैनलों में कैसे पत्रकारीय हुनर काम करेगा, जब समूचा वातावरण ही नेता-मंत्री को स्टूडियो में लाने में लगा हो। अगर अंग्रेजी के राष्ट्रीय न्यूज चैनलों की होड को देखे तो प्राइम टाइम में वही चैनल या संपादक बड़ा माना जाता है, जिसके स्क्रीन पर सबसे महत्वपूर्ण नेताओ की फौज हो। यानी मीडिया की आपसी लड़ाई एक दूसरे को दिखाने बताने के सामानांतर विज्ञापन के बाजार में अपनी ताकत का एहसास कराने का ही है। यानी इस पूरी प्रक्रिया में आम दर्शक या वह आम आदमी है कहां, जिसके लिये पत्रकार ने सरोकार की रिपोर्टिंग का पाठ पढ़ा था। पत्रकारिता को सरकार पर निगरानी करने का काम माना गया। लोकतांत्रिक राज्य में चौथा स्तंभ मीडिया को माना गया । अगर खुली बाजार व्यवस्था में पत्रकारिता को भी बाजार में खुला छोड कर सरकार यह कहे कि अब पैसा है तो लाइसेंस लो। पैसा है तो काम करने का अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाओ । और अपने प्रतिद्दन्दी चैनलों से अपनी तुलना मुनाफा बनाने या घाटे को कम करने के मद्देनजर करो। ध्यान दीजिये तो मीडिया का यही चेहरा अब बचा है। ऐसे में किसी कारपोरेट या निजी कंपनी से इतर किसी मीडिया हाउस की पहल कैसे हो सकती है। और अगर नहीं हो सकती है तो फिर चौथे खंभे का मतलब है क्या। सरकार की नजर में मीडिया हाउस और कारपोरेट में क्या फर्क होगा। कॉरपोरेट अपने धंधे को मीडिया की तर्ज पर क्यो नहीं बढ़ाना-फैलाना चाहेगा। मसलन सरकार कौन सी नीति ला रही है। कैबिनेट में किस क्षेत्र को लेकर चर्चा होनी है। पावर सेक्टर हो या इन्फ्रास्ट्रक्चर या फिर कम्यूनिकेशन हो या खनन से सरकारी दस्तावेज अगर वह पत्रकारीय हुनर तले चैनल की स्क्रीन या अखबार के पन्नों पर यह ना बता पायें कि सरकार किस कारपोरेट या कंपनी को लाभ पहुंचा रही है, तो फिर पत्रकार क्या करेगा। 

जाहिर है सरकारी दस्तावेजों की भी बोली लगेगी और पत्रकार सरकार से लाभ पाने वाली कंपनी या लाभ पाने के लिये बैचेन किसी कॉरपोरेट हाउस के लिये काम करने लगेगा। और राजनेताओं के बीच भी उसकी आवाजाही इसी आधार पर होने लगेगी। संयोग से दिल्ली और मुबंई में तो पत्रकारों की एक बडी फौज मीडिया छोड़ कारपोरेट का काम सीधे देखने से लेकर उसके लिये दस्तावेज जुगाड़ने तक में लगी है। यह परिस्थितियां बताती हैं कि मीडिया हाउस की रप्तार निजि कंपनी से होते हुये कारपोरेट बनने की ही दिशा पकड़ रही है और पत्रकार होने की जरुरत किसी कॉरपोरेट की तर्ज पर मीडिया हाउस को लाभ पहुंचाने वाले कर्मचारी की तरह होता जा रहा है। और ऐसे में प्रेस काउंसिल मीडिया को लेकर सवाल खड़ा करता है तो झटके में चौथा खम्भा और लोकतंत्र की परिभाषा हर किसी को याद आती है। लेकिन नयी परिस्थितियों में तो संकट दोहरा है। सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होते ही जस्टिस काटजू प्रेस काउंसिल के चैयरमैन बन जाते है और अदालत की तरह फैसले सुनाने की दिशा में बढ़ना चाहते हैं। वहीं उनके सामने अपने अपने मीडिया हाउसों को मुनाफा पहुंचाने या घाटे से बचाने की ही मशक्कत में जुटे संपादकों की फौज खुद ही का संगठन बनाकर मीडिया की नुमाइन्दी का ऐलान कर सरकार पर नकेल कसने के लिये प्रेस काउसिंल के तौर तरीको पर बहस शुरु कर देती है। और सरकार मजे में दोनो का साख पर सवालिया निशान लगाकर अपनी सत्ता को अपनी साख बताने से कतराती। ऐसे में क्या यह संभव है कि पत्रकारीय समझ के दायरे में मीडिया पर बहस हो। अगर नही तो फिर आज एशियन एज की जिगना वोरा अंडरवर्ल्ड के कटघरे में है, कल कई होंगे। आज राडिया प्रकरण में कई पत्रकार सरकारी घोटाले के खेल की बिसात पर है तो कल इस बिसात पर पत्रकार ही राडिया में बदलते दिखेंगे।
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Friday, 23 September 2011

कहाँ से लाओगे यह संस्कृति


भारत अनेक जाति –जनजातियों] धर्म –पंथों तथा संस्कृति –संप्रदायों का भंडार हैं। देश की जनसंख्या का ukS प्रतिशत हिस्सा आदिवासी का है। झारखण्ड की बात djas तो यह 28 प्रतिशत तक है। मुड़ा] असुर] बिहोर] बेदरा] गोंडा] हो] गोरती] बिंझिया vkfn उन 32 आदिवासी समुदायों में प्रमुख हैSA जिनके नाम पर झारखण्ड को अलग राज्य का दर्जा मिला है। इन आदिवासी समुदायों की अपनी रहन-सहन] वेश-भूषा] आभूषण] संगीत] रुचियाँ] रीति–रिवाज भाषा बोली] कृषि] पशुपालन] खान–पान] सोच–विचार आज भी लोगों को इनके बारे में जानने bUgas समझने के लिए उत्सुकता पैदा करती है। असुर जनजाति के आदिवासी को राज्य के सबसे पुराने होने का दर्जा मिला है। आज भी ये समुदाय *मड़* के बने घरों में रहना पसंद करते हैं। 20 लाख वाली मुंडा जनजाति के आदिवासी बोल-चाल और खान –पान में सर्दी&मराण्डी  जनजाति के सब से करीब मिलते हैं। वही म्चलिस जनजाति आज भी अपने  दिनचर्या का गुजारा बाँस से टोकरी] पतों से प्लेट (दोना) बना और उसे बेचकर करते हैं। जल] जंगल] जमीन की ये आदिवासी पूजा करते हैं। और यही इनके दोहन एवं शोषण का मूल कारण बना हुआ है क्योंकि सरकार अब निजी उद्योगपति के ज़रीए अब सरकार की नज़र bUgha taxykas&tehuksa  dh खनीज़ सम्पदा पर है।
झारखण्ड की सुदूर {ks=ksa से जब भी हम गुजरे तो जोहार झारखण्ड और भगवान बिरसा की जय के नारे हमेशा हमारे कानों को सुनने मिल जाते हैं। इस प्रदेश में देश की 40 प्रतिशत खनिज़ सम्पदा है vkSj ;kn j[kuk pkfg, fd जहाँ सालों से राज्य के 28 प्रतिशत आदिवासी रह रहे हैंA vjksi rks ;g Hkh gS fd सरकार विकास के नाम पर लगातार एक खास जनजाति को चयनित कर उनके घर से बेदखल कर रही है। बड़े–बड़े कारखाने] उद्योग के लिय ज़मीन उपलब्ध करना राज्य सरकार का मानो प्रथम लक्ष्य हो चुका है] फिर चाहे lSdM+ksa&हजारों आदिवासियों को उनके ही स्थान से उजाड़ना क्यो न पड़ेA हलाfक सरकार यह दावे करने में जरा भी देर नहीं करती की प्रभावितksa को काम और मकान पुनर्वास योजना के तहत दिया जाएगा। संभवता अगर करखानों  में काम मिल भी जाए तो क्या ये व्यवहारिक है की एक समाज हजारों सालों से अपनी बाँस से टोकरी] पतों से प्लेट] खेती या पर्यावरण पर निर्भर होकर अपनी जीविका चलता हो] वो आचनक से कारखाने में वील्डिंग और xzSfYMax करने लगेa\ अपनी औद्योगिक नीति के तहत झारखण्ड की rRdkyhu बाबूलाल सरकार ने राँची से बहिरगोड तक चार लेन की 300 किलोमीटर लंबी सड़क बनाने का निर्णय लिया था।  tkfgj gS  fd इस सड़क को बनाने में आदिवासियों की जमीन ली गयी। इस योजना को लागू करने पर अनुमानित तीन लाख लोग विस्थापित हु,A vkf[kj  कहाँ गए ये लोग\ vc ;s क्या dj jgsa gksxas\ सरकार  blls बेपरवाह jgh  हैA इस असंतोष-आक्रोश ने अब लोगों के हाथ में बंदूकें थमा दी हksa rks blesa vk”p;Z D;k gS\ सोचने की बात rks है की अगर कोई आदिवासी जनजाति जल&जंगल&ज़मीन से बेदखाल  gq,  बिना ही विकास चाहती है तो सरकार उन्हें लगातार बदलने की कोशिश  क्यों कर रही है\
भारतीय संविधान के धारा 342 के तहत भारत में 697 समुदाय के आदिवासी हैं। इनdh  बेहतरी के लिए आदिवासी कल्याण मंत्रालय भी है। इसी तर्ज पर झारखण्ड में भी आदिवासी के विकास के लिए अलग विभाग हैं। राज्य की नौकरियों में आदिवासीयों के लिए आरक्षण की नीति अपनाई गयी है rkfd उनकी समाज में भागेदारी सुनिश्चित हो सके। पर जिस राज्य को आदिवासी राज्य होने है दर्जा मिला हो। जहां अभी तक सारे मुखमंत्री आदिवासी बने हैं। उसी राज्य में आदिवासियों के साथ सांस्कृतिक] सामाजिक] राजनीतिक] आर्थिक अन्याय देखने को मिल रहा है। संचार का सबसे बड़ा माध्यम शिक्षा आज भी इनसे कोशों दूर है । 71.4 प्रतिशत आदिवासी बच्चे प्राथमिक विद्यालय तक भी नहीं पहुँच पते है। 17.7 प्रतिशत माध्यमिक के बाद स्कूल को टाटा कह देते हैं। 10 क्लास तक ये आकड़ा 16.5 प्रतिशत तक रह जाता है। बात साफ है कि सरकार जो शिक्षा का अलक जागकर आदिवासियों को जागरूक सजक] आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश में है ये बात उन तक संप्रेषित नहीं हो पा रही है। केंद्र और राज्य सरकार की कई लाभकारी योजना, सरकारी इच्क्षा&शक्ति की कमी की वजह से दूर हैं। आज भी विज्ञापन होर्डिंग या सरकार dk प्रचार–प्रसार माध्यम आदिवासियों की भाषा u gksdj  हिन्दी या इंग्लिश में है। जिसे उन्हें समझने में काफी परेशानी होती है या जो उनके लिए संप्रेषणीय नहीं है। भाषा का अजनबीपन हमेशा से सरकार और आदिवासियों ds  chp  कम्युनिकेशन गैप का काम कर रहा है। आज भी इन इलाकों में सड़क] बिजली] पानी की कोई सुविधा नहीं है। यानी मूलभूत सुविधाओं से कोशों दूर हैं। सरकारी संचार तंत्र- जनसम्पर्क विभाग] आदिवासी कल्याण विभाग] प्रिंट विभाग] फिल्म विभाग] सेंट्रल फील्ड प्रचार विभाग आदि आदिवासी के मामलों में मात्र खानापूर्ति के लिए काम कर रहे है। पंचायत] नगर] ज़िला] केंद्र के स्तर पर कई योजना, आदिवासियों को लाभ और उनकk स्तर को ऊपर लाने के लिए बनी है] जिनकks समझus से वे काफी दूर है और सरकारी संचार तंत्र इन मामलों में उदासीन बन बैठी है। सवाल है की अगर कोई समुदाय  या जनजाति पर्यावरण से जल] जंगल] जमीन से जुड़े रहना चाहता है ftlls og सदियों से tqM+k Hkh  रहा है तो सरकार उनके विकास की योजना उनके प्रकृति ds vuq#i में क्यो नहीं तैयार कर रही है\ निसंदेह विभिन्न आदिवासी समुदायों की वर्तमान के लिए शोषकों द्वारा विनिर्मित धूसर अतीत और जारी वर्तमान जिम्मेवार है] ysfdu ;fn lpewp ge pkgrsa gS fd mudk  भविष्य सुनहरा हो rks इसके लिए आदिवसियों के साथ मिलकर सांस्कृतिक] सामाजिक] राजनीतिक] आर्थिक आदि कई मोर्चों पर लड़ाई लड़नी होगीA सरकार को सुदूर अतीत में विभिन्न आदिवासी समुदायों के जीवट और संघर्ष की सार्थकता को जहां पीछे मुड़कर याद करना ही चाहिए वही निकट भविष्य में उनकी सफलता चरम और निरंतर सुनियोजित विकास तक iaqचाने का प्रयास करना चाहिए। 
 D.A.N LUCKNOW (22-9-11) MEI PRAKASITA
 

Tuesday, 6 September 2011

सियासी बिसात कैसे बिछी अन्ना के लिये

जनलोकपाल की लड़ाई क्या ऐसे मोड पर आ गई है, जहां कांग्रेस को अब अपने आप को बचाना है और बीजेपी को इस आंदोलन को हड़पना है। यानी आंदोलन के लिये उमड़े जनसैलाब ने सरकार को भी जनलोकपाल के पक्ष में खड़े होने को मजबूर किया है और बीजेपी भी इसके जरीये अपनी सियासत ताड़ना चाहती है। इसकी असल बिसात आज सुबह ही तब शुरु हुई जब एनडीए ने यह मान लिया कि जनलोकपाल को लेकर सरकार हरी झंडी कभी भी दे सकती है। ऐसे में भ्रष्टाचार के मुद्दे के जरीये अपनी राजनीतिक पहल करने की कोशिश अगर बीजेपी ने यह कहकर दी लेकसभा और राज्यसभा में प्रशनकाल की जगह भ्रष्ट्राचार पर बहस की जाये तो दूसरी तरफ जनलोकपाल पर अपनी रणनीति को आखरी खांचे में समेटने के लिये सरकार ने सभी पार्टियों को बुधवार की दोपहर का न्यौता यहकहकर दे दिया कि जनलोकपाल पर संसद में सहमति बनाना जरुरी है।
इसी वक्त में अपनी रणनीति को अंजाम तक पहुंचाने के लिये अपने सारे घोड़े भी खोल दिये, जिसका असर यह हुआ कि श्री श्री, जो लालकृष्ण आडवाणी के लिये सिविल सोसायटी के जरीये समूचे आंदोलन को हड़पने की तैयारी कर रहे थे और लगातार अन्ना की टीम को आडवाणी के दरवाजे तक ले जाने में जुटे थे। उनकी पहल से पहले ही सलमान खुर्शीद ने जनलोकपाल पर अपनी सहमति देते हुये अरविंद केजरीवाल को बातचीत का न्यौता यहकहकर दे दिया कि सरकार कमोवेश हर मुद्दे पर तैयार है। आप सिर्फ आकर मिल लें।
जाहिर है कांग्रेस और बीजेपी दोनो के लिये अन्ना का आंदोलन जनलोकपाल के मुद्दे से आगे इसलिये निकल चुका है क्योंकि संसदीय लोकतंत्र में किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिये जितनी जरुरत जनता की होती है, उससे कहीं ज्यादा जनसैलाब को अन्ना हजारे ने बिना अपना राजनीतिकरण किये कर दिखाया। इतना ही नहीं अन्ना के आंदोलन का मंच शुरु से ही राजनीति को ठेंगा दिखाते हुये शुरु हुआ और रामलीला मैदान से जिस तरह ना सिर्फ सरकार बल्कि राष्ट्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस और बीजेपी को भी जनतंत्र का आईना दिखाया गया। उसमें आंदोलन को कौन अपने पक्ष में कर सकता है इसकी होड़ मची। प्रणव मुखर्जी को बीच में लाने का फैसला भी इसीलिये लिया गया कि एनडीए किसी भी तरह से सरकार के वार्ताकार प्रणव मुखर्जी पर निशाना नहीं साधेगा और भ्रष्टाचार को लेकर एनडीए जिन मुद्दो को संसद में उठा सकता है या फिर सर्वदलीय बैठक में उठायेगा उसका जवाब प्रणव मुखर्जी हर लिहाज से बेहतर दे सकते हैं।
लेकिन यही से संकट बीजेपी का शुरु होता है। उनकी रणनीति में जनलोकपाल को खुला समर्थन का फैसला यह सोच कर टाला गया कि अगर अन्ना टीम उनके दरवाजे को सरकार से पहले ठकठकाती है तो देश में संकेत यही जायेंगे कि जनलोकपाल को लेकर सरकार चाहे ना झुके लेकिन बीजेपी की अगुवाई में एनडीए संसद के भीतर जनलोकपाल का समर्थन करेगा। मगर राजनीतिक शह मात में बीजेपी इस हकीकत को समझ नहीं पायी कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आंदोलन उसी वक्त उसके हाथ से निकल जब सांसदो के घरों को घेरने निकले लोगों ने कांग्रेस और बीजेपी के सांसदो में फर्क नही किया। और कांग्रेस के भीतर से सांसदों ने अन्ना हजारे के पक्ष में बीजेपी के सांसदों से पहले ही पक्ष लेना शुरु कर दिया। यानी जिस लड़ाई में सरकार चारों तरफ से घिरी हुई है उसमें बीजेपी के रणनीतिकार यह नही समझ पाये उनकी हैसियत सियासी खेल में अभी विपक्ष वाली है और पहले उन्हे साबित करना है कि वह सरकार के खिलाफ मजबूत विपक्ष है। इसके उलट बीजेपी की व्यूहरचना खुद को सत्ता में पहुंचाने के ख्वाब तले उड़ान भरने लगी। इसका लाभ सरकार को यह मिला कि अन्ना के जनसैलाब के सीधे निशाने पर होने के बावजूद व्यूह रचने के लिये वक्त अच्छा-खासा मिल गया। और कांग्रेस के लिये राहत इस बात को लेकर हुई इस मोड़ पर भ्रष्ट्राचार की उसकी अपनी मुहिम भोथरी नहीं है, यह कहने और दिखाने से वह भी नहीं चुकी। यानी जिस रास्ते आरटीआई आया और काग्रेस इसे आज भी भुनाती है उसी तरह जनलोकपाल के सवाल को भी वह भविष्य में अपने लिये तमगा बना सके , दरअसल राजनीतिक बिसात इसी की बिछी। इसलिये सरकार जो रास्ता बातचीत के लिये खोल रही है और बीजेपी जिन रास्तों से जनलोकपाल के हक में खडे होने की बात करने की दिशा में बढ रही है वह वही संसदीय लोकतंत्र का चुनावी मंत्र है जिसपर प्रधानमंत्री ने 17 अगस्त को संसद में अन्ना के आंदोलन से खतरा बताया था।दूसरी तरफ अन्ना के आंदोलन को लेकर कांग्रेस और बीजेपी जिस मोड़ पर एकसाथ खड़े हैं, वह रामलीला मैदान में आमलोगो का छाती पर इस स्लोगन को लिखकर घुमना कि आई एम अन्ना एंड आई नाम नाट ए पालेटिशियन है।
इसे ही कांग्रेस-बीजेपी दोनों बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि दुनिया भर में संदेश यही जा रहा है कि बीते ते साठ बरस में पहली बार वही संसदीय राजनीति आम लोगों के निशाने पर जिसके आसरे दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश होने का तमगा भारत ढोता रहा। यह सवाल जनलोकपाल से ना सिर्फ आगे जा रहा है बल्कि मंत्रियों-सांसदों के घरों के बाहर बैठकर भजन करते अन्ना के समर्थन में उतरे लोग इस सवाल को खड़ा कर रहे है कि क्या लोकतंत्र का मतलब चुनाव के बाद पांच साल तक देश की चाबी सांसदों को सौप देने सरीखा है। या फिर इस दौर में संसदीय चुनाव के तरीके ही कुछ ऐसे बना दिये गये जिसमें सामिल होने के लिये न्यूनतम शर्त भी दस हजार की उस सेक्यूरटी मनी पर जा टिकी है जिसके हिस्से में देश के 80 करोड़ लोग आ ही नहीं सकते। और अगर चुनाव की समूची प्रक्रिया के बीतर झांके तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे छोटा हिस्सा ही चुनाव मैदान में उतर सकता है, क्योंकि चुनाव मुद्दो के आसरे नहीं वोट बैक और बैंक के बाहर जमा कालेधन के जरीये लड़ा जाता है। इसका पहला असर यही है कि मौजूदा लोकसभा में 182 सांसद ऐसे हैं, जिन पर भ्रष्टाचार या अपराध के मामले दर्ज हैं। और छह क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के सर्वेसर्वा यानी अध्यक्ष ही भ्रष्टाचार के आरोप में फंसे हुये हैं और उनकी जांच सीबीआई कर रही है।
ऐसे में जनलोकपाल के दायरे में सांसदों या मंत्रियों के साथ साथ प्रधानमंत्री को लाने पर वही संसद कैसे मोहर लगा सकती है यह अपने आप में बड़ा सवाल है। लेकिन अन्ना के आंदोलन से खडे हुये जनसैलाब ने पहली बार संसदीय लोकतंत्र को जनलोकपाल जनतंत्र के जरीये वह पाठ पढाया जिसमें सरकार को भी इसका एहसास हो गया कि जनसैलाब की भाषा चाहे सियासी ना हो लेकिन सियासत को उसके पिछे तब तक चलना ही पडेगा जबतक यह भरोसा समाज में पैदा ना हो जाये कि सत्ता के सरोकार आम लोगो से जोड़े हैं। और बीते हफ्ते भर में अविश्वास की लकीर ही इतनी मोटी हुई कि उसने राजनीति को भी सीधी चुनौती दी। और यह चुनौती दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में कैसे ठहाका लगा कर लोकतंत्र पर सवालिया निशान लगा रही है यह प्रधानमंत्री या मंत्रियो या सांसदो के घरो के घेरेबंदी के वक्त लोग महसूस कर रहे हैं ।
दरअसल, अन्ना हजारे ने इसी मर्म को पकड़ा है, और जनलोकपाल के सवालो का दायरा इसीलिये बड़ा होता जा रहा है। और अन्ना की छांव में अब यही से वह राजनीतिक अंतर्विरोध भी उभरने लगे है जो सत्ता की होड में सरकार को घेरेने के लिये हर स्तर पर राजनीतिक दल को खड़ा करती है और सासंदो के भीतर उत्साह दिखाती है। कांग्रेस के संसदों के घर के बाहर संघ के स्वयंसेवक अन्ना की टोपी लगा कर बैठ रहे हैं तो बीजेपी के सांसदो के घर के बाहर कांग्रेस के कार्यकत्ता भी मै अन्ना हूं कि टी शर्ट पहन कर बीजेपी सांसद से सवाल कर रहे हैं कि आपका रुख जनलोकपाल को लेकर है क्या। पहले इसे बताये। यानी जनता के मुद्दो के जरीये राजनीति लाभ उटाने की कोशिश भी इस दौर में शुरु हो चुकी है। लेकिन जिस मोड पर अन्ना हजारे राजनीतक दलो को बैचेन कर रहे हैं। सासंदो को पशोपेश में डाल चुके हैं कि उनका रुख साफ होना चाहिये उस मोड पर एक सवाल यह भी है कि जिन जमीनी मुद्दो को लेकर अन्ना के साथ देश के अलग अलग हिस्सों से लोग जुडते चले जा रहे है, अगर इससे संसद के भीतर सांसदो की काबिलियत पर ही सवाल उठने लगे हैं तो फिर चुनाव का रास्ता किसी भी राजनीतिक दलो की वर्तमान स्थिति के लिये कैसे लाभदायक होगा। इस प्रक्रिया को राजनीतिक दल या सांसद समझ नहीं रहे है ऐसा भी नहीं है क्योकि उनकी पहल अभी तक यही बताती है कि सरकार अपने कामकाज में फेल । जबकि सडक पर बैठे जनसैलाब को यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि वह चुनाव लड़ना नहीं चाहता , लेकिन चुनाव जीत कर पहुंचे संसद की गरिमा को भी अब घंघे में बदलने नहीं देगा। और यह सवाल आजादी के बाद पहली बार गैर राजनीतिक मंच से राजनीति को चुनौती देते हुये जिस तरह खडा हुआ है उसने संसदीय लोकतंत्र को ही कटघरे में खड़ा कर दिया है। और दिल्ली के जिस रामलीला मैदान पर 1975 में जेपी ने कहा था कि सिहासंन खाली करो की जनता आती है, उसी रामलीला मैदान में हजारों हजार लोग छाती पर यह लिख कर बैठे है कि माई नेम इड अन्ना एंज आई एम नाट ए पोलेटिशन।
पुण्य प्रसून बाजपेयी

Saturday, 30 July 2011

आपकी टाई उनका फंदा

  
देश के अव्वल राज्यों की सूची में आने वाला महाराष्ट्र आज किसान आत्महत्या के कलंक से कलंकित हो गया है।11जिलों वाले पूर्वी महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र तीन सौ सालों से राजनीतिक,आर्थिक और सामाजिक जनांदोलनों का केंद्र रहा है। कभी विदर्भ के किसान होने के साथ जो सम्मान और गरिमा जुड़ी हुई थी वह आज आशाहीनता और हताशा में बादल गई है। कपास,सोयाबीन और संतरा के लिए पहचाना जाने वाला विदर्भ के नाम के साथ आज स्वत: ही किसान आत्महत्याओं की तस्वीर दिमाग में कौंधने लगती है। विदर्भ में कपास को सफ़ेद सोना कहा जाता है पर विदर्भ की खेती और विदर्भ के किसान, आज औद्योगिक सभ्यता के प्रमुख निशाने पर हैं। जून 2005से अब तक विदर्भ क्षेत्र में मौत को गले लगाने वाले किसानों की कुल संख्या 7860 हो चुकी है। सूखाजल संकट,चाराभोजन और बेरोजगारी का संकट विदर्भ में 15,460 गांवों तक पहुंच चुकी है। जून 2006 में केंद्र सरकार की ओर से घोषित किसानों के लिए राहत पैकेज भी किसानों के लिए लाभकारी नहीं रहे। महाराष्ट्र सरकार ने जिन गांवों को सूखाग्रस्त घोषित किया है,उनके लिए चलाए जा रहे राहत कार्य कागजों तक ही सीमित हैं। सूखा पडऩे से मवेशियों के लिए चारे का संकट गंभीर हो गया है। लोग अपने पशु कसाइयों के हाथों में बेच रहे हैं। चारा संकट के कारण मवेशी भी असमय काल के गाल में समा रहे हैं। विदर्भ के मामले में प्रधानमंत्री ने स्वयं हस्तक्षे कर किसानों को सिंचाई का पर्याप्त पानीमुफ्त स्वास्थ्य सेवाखाद्य सुरक्षाग्रामीण रोजगार आदि की उपलब्धतासुनिश्चित कराई जिससे किसान आत्महत्या रूक सके। बावजुद  समस्या जस की तस बनी हुई है। यहाँ की 60% खेती आज भी मौसम की मेहरबानी पर निर्भर है, हालांकि सरकार ( सिंचाई विभाग) हर खेत तक सिंचाई सुविधा उपलब्ध करने की बात तो करता है पर ये दावे कागजों तक ही सीमित रह जाते है।विदर्भ में आज भी 90 प्रतिशत खेती असिंचित है। असिंचित खेती को कोई प्रत्यक्ष सबसिडी नहीं है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में फसल मारी जाएगी और नकदी फसलों की खेती करने वाले किसानों पर कर्ज का बोझ बढ़ेगा। राज्य की दूसरी गंभीर समस्या है बिजली की कटौती। विदर्भ में स्थापित विद्युत ईकाइयों से उत्पादित बिजली से दूसरे राज्यों के शहर रौशन होते हैं। जबकि विदर्भ का किसान को सिंचाई के लिए भी बिजली नहीं मिल पाती है. विदर्भ मे अब बिजली और सिंचाई की समस्या एक दूसरे में गुंथ चुके हैं। किसान बीज, उर्वरककीटनाशक के लिए कर्ज़ लेता है। फसल अच्छी नहीं होने के कारण साहूकारों को कर्ज़ नहीं चुका पता है और आत्महत्या जैसा कठोर कदम उठता है।  बैंकों द्वारा ऋण बांटे जाने की प्रकीर्य इतनी जटिल है कि आज भी 60% से ज़्यादा किसान साहूकार की चंगुल से बच नहीं पाते है। कर्ज़ माफी की बात कर ले तो सरकार ने हाल ही में 1075 करोड़ का कर माफ़ी कर पूरे देश में अपने को किसानों का हितैषी बता रही है जब कि असलीयत कुछ और ही बयां करती है। सरकार ने 1075 करोड़ का कर्ज़ तो जरूर माफ कर दिया है. साथ ही साथ किसानों को 17000 करोड़ का बोनस देना बंद कर दिया यानि पैकेज दे कर पॉलिसी को बंद कर दिया गया। आमूमन विदर्भ में किसान के पास कम से कम 4 से 5 एकड़ ज़मीन है। इतनी ज़मीन होने के बावजूद भी उन पर प्रति व्यक्ति 50 से 60 हजार का कर्ज रहता है। पश्चिमी महाराष्ट्र में किसानों के पास खेत कम हैं पर उन पे प्रति व्यक्ति कर्ज 2 से 5 लाख तक होता है। सरकार की पूरी कर्ज़ माफी की प्रकीर्य बंकों से लिए गए ऋण के अनुसार होती है। इन सब का ज़्यादा लाभ पश्चिमी महाराष्ट्र के लोगों को लाभ पहुंचाने के उदेश्य से किया जाता रहा है. इन नीतियों के जरिये विदर्भ के किसानों के साथ सोतेला व्यवहार किया जाता रहा है। हर बार नीतियाँ ऐसी बनाए जाते हैं कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पश्चिमी महाराष्ट्र को फायदा मिले। नतीजतन किसान आत्महत्या की राह अपनाते हैं, खासकर उस स्थिति में जब प्रधानमंत्री द्वारा घोषित विशेष राहत पैकेज और सरकारी कर्जमाफी की योजना विदर्भ के किसानों को संकट से उबारने में असफल सिद्ध हो रही है। इन सब के साथ किसान के परिवारों को मुफ्त में बीमारियाँ, कुपोषण का सामना करना पड़ता है। संतरा, रबी, कपास, बाजरा, आदि फसलों के लिए मशहूर विदर्भ आज सरकारी उदासिनता, बाज़ार की नीतियों,मौसम की मार और साहूकार या बैंकों के दबाबों के कारण किसान आत्महत्या की राजधानी बन गया है। जबकिमहाराष्ट्र की फलती-फूलती राजधानी और देश की वित्तीय राजधानी मुंबई को देखें जो विदर्भ से मात्र 700 कि.मी. की दूरी है पर दोनों के हालातों में ज़मीन आसमान का फर्क है।    
मीडिया के कुछ एक सस्थान को छोड़ हाल के वर्षों में मीडिया की जो भाषा और बंगीमा बनी है उसमें जन साधारण की अभिव्यक्ति को साधारण ही माना जाता है। आज खेती किसानी करने वाले लोग मीडिया की नज़र मेंनत्था’ से बड़ी कीमत नहीं रखते। उनके मरने की खबर उनके लिए बस एक सेलेबल न्यूज़ आइटम है जो जिसे अगले दिन राखी सावंत के ठुमके पर लुटाया जा सकता है।
हम जो कुछ पढ़ते-देखते-सुनते हैं वह सिर्फ एक आभासी चेहरा है असल राजनीति और उसका अर्थशास्त्र तो समाज के कुछ खास वर्गों के हाथों में जो तय करते हैं की 
रस्सी कब गले की टाई होगी और कब फांसी का फंदा

-30-7-11 D.N.A LUCKNOW में प्रकाशित-

Friday, 29 July 2011

बीजेपी के गले का फास येदियुरप्पा सरकार

10 महीने पहले बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी ने ही येदियुरप्पा की कुर्सी बचायी थी तो क्या दस महीने बाद गडकरी येदियुरप्पा की कुर्सी लेने पर राजी हो चुके हैं। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि अक्टूबर 2010 में भी लोकायुक्त जस्टिस संतोष हेगडे ने अवैध खनन को लेकर सीधे येदियुरप्पा पर ही निशाना साधा था और तब आरएसएस येदियुरप्पा के साथ खड़ी हो गई थी। और गड़करी ने खुले तौर पर येदियुरप्पा को क्लीनचीट दी थी। तो फिर दस महीने में ऐसा क्या हो गया जो बीजेपी के भीतर से ही येदियुरप्पा को हटाने की आवाज आने लगी। असल में येदियुरप्पा बीजेपी शासित राज्यो में सिर्फ भ्रष्टाचार के प्रतीक भर नहीं है बल्कि बीजेपी के भीतर चल रही सियासी बिसात के सबसे अहम प्यादे बन चुके हैं।
गडकरी इस प्यादे को बीजेपी की दिल्ली चौकडी तले कटने नहीं देना चाहते हैं तो दिल्ली की चौकडी ना सिर्फ येदियुरप्पा को भ्रष्टाचार पर बनते राष्ट्रीय मुद्दे तले प्यादा बनाकर काटना चाहती है बल्कि भ्रष्टाचार में फंसी मनमोहन सरकार के खिलाफ येदियुरप्पा सबसे गाढ़ा दाग मनवाने के लिये बेताब है। असल में बीजेपी की इस दिल्ली लड़ाई के पिछे सवाल सिर्फ येदियुरप्पा का नहीं है। बल्कि भ्रष्टाचार की बिसात पर अपनी पैठ बनाने की सत्ता की अनूठी लड़ाई है। कर्नाटक में इस वक्त डेढ दर्जन से ज्यादा पावर प्लांट पाइप लाइन में है। जिसमें नौ निजी कंपनियां ऐसी है जो सीधे बीजेपी की अंदरुनी सियासी संघर्ष में फिलहाल सत्ता के करीबी हैं। कर्नाटक का जो सच लोकायुक्त ने अपनी रिपोर्ट में दिखाया है, वह चार बरस में 16 हजार 85 करोड के राजस्व का चूना लगने का है। लेकिन पावर सेक्टर का खेल बताता है कि निजी कंपनियो के जरीये पावर प्लांट लगाने के लाइसेंस के पीछे 50 हजार करोड़ से ज्यादा के वारे न्यारे हैं। इसीलिये कर्नाटक पावर कारपोरेशन को सिर्फ दो पावर प्लाट से जोड़ा गया है बाकि की फेरहिस्त में रिलायंस, इंडो-भारत पावर, मुकुंद लिमेटेड,सुराना पावर, एटलस पावर , कोस्टल कर्नाटक पावर, और पावर कंपनी आफ कर्नाटक का नाम है जिसके पीछे इस वक्त बीजेपी के वही कद्दावर है जो नहीं चाहते कि येदियुरप्पा कुर्सी छोड़ें।
इसी तरह हाउसिंग और राजस्व मंत्रालय में भी तीस हजार करोड़ से ज्यादा का खेल जमीन पर कब्जे को लेकर चल रहा है और संयोग से दोनो की मंत्रालय के मंत्रियों के नाम घोटाले में आये हैं। इसलिये बैगलूर में सत्ता का जो संघर्ष योजनाओं के खेल से उभारता है वह दिल्ली पहुंचते पहुंचते भ्रष्टाचार की सियासी चाल से जुड़ जरुर रहा है । मगर उसका रंग अब भी घंघे से कमाई का ही है। गडकरी बतौर बीजेपी अध्यक्ष पार्टी के भीतर सीधे संघर्ष के मूड में हैं। क्योंकि उन्हे लगने लगा है कि अगर येदियुरप्पा पर फैसला आडवाणी के घर से निकलेगा तो उनकी हैसियत घटेगी। इसलिये फैसले की नब्ज गडकरी अपने हाथ में रखना चाहते हैं, चाहे आडवाणी के घर बैठक से जो भी निकले। इसीलिये येदियुरप्पा भी जिस फार्मूले के साथ दिल्ली पहुंचे हैं, उसमें चेतावनी दिल्ली की चौकडी के लिये ही है, जो अनंत कुमार कर्नाटक की कुर्सी पर भैठाने के लिये बैचेन है, जिससे करोड़ों के वारे-न्यारे का पाला झटके में बदल जाये।
उधर येदियुरप्पा का फार्मूला सीधा है। लोकायुक्त की रिपोर्ट में उनका नाम बतौर मुख्यमंत्री है। जबकि भ्रष्टाचार के घेरे में जो चार मंत्री फंसे है उनमें से दो मंत्री अंनत के करीबी हैं। राज्य के राजस्व, स्वास्थ्य , हाउसिंग और पर्यटन मंत्री का नाम लोकायुक्त की रिपोर्ट में है। येदियुरप्पा का कहना है पहले तो चारो मंत्रियो को हटाना होगा। फिर लोकायुक्त की रिपोर्ट में चूंकि काग्रेस के राज्यसभा सांसद लाड और कुमारस्वामी का भी नाम है तो भ्रष्टाचार के फंदे में उन्हे फांसने के लिये कोई व्यूहरचना करना जरुरी है। और इसके लिये बीजेपी सांसद सदानंद गौडा की अगुवाई में पहल तुरंत शुरु करनी चाहिये। यहां यह जानना भी जरुरी है कि सदानंद का मतलब कर्नाटक की सियासत में येदियुरप्पा की छांव का होना है। तो येदियुरप्पा का अपना चक्रव्यूह अपनों के जरीये बीजेपी की दिल्ली चौकडी के ही पर कतर अपने विकल्प का भी ऐसा रास्ता बनाने की दिशा में है, जहा गद्दी जाने पर भी सत्ता की डोर येदियुरप्पा के ही हाथ में रहे। और इस पूरे खेल की सियासी बिसात नीतिन गडकरी अपनी हथेली पर खेलना चाहते है जिससे आडवाणी के घर बैठक करने वालो का यह एहसास हो कि रांची में अर्जुन मुंडा से लेकर बैगलूरु में येदियुरप्पा तक को कुर्सी पर बैठाने या हटाने के पीछे वही रहेंगे। क्योंकि अब बीजेपी में अंदरुनी सत्ता का संघर्ष है कही ज्याद तीखा हो चला है क्योंकि भ्रष्टाचार में घिरती सरकार के सामने खडी बीजेपी किसके कहने पर किस रास्ते चले जो असल नेता कहलाये संकट यही है। इसलिये येदियुरप्पा की चलेगी तो दिल्ली की बीजेपी चौकडी की पोटली हमेशा खाली ही रहेगी और बीजेपी अद्यक्ष नीतिन गडकरी की पोटली पर आंच आयेगी नहीं ।

पुण्य प्रसून बाजपेयी

Tuesday, 26 July 2011

आपकी टाई उनका फंदा ....

देश के अव्वल राज्यों की सूची में आने वाला महाराष्ट्र आज किसान आत्महत्या के कलंक से कलंकित हो गया है। 11 जिलों वाले पूर्वी महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र तीन सौ सालों से राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जनांदोलनों का केंद्र रहा है। कभी विदर्भ के किसान होने के साथ जो सम्मान और गरिमा जुड़ी हुई थी वह आज आशाहीनता और हताशा में बादल गई है। कपास, सोयाबीन और संतरा के लिए पहचाना जाने वाला विदर्भ के नाम के साथ आज स्वत: ही किसान आत्महत्याओं की तस्वीर दिमाग में कौंधने लगती है। विदर्भ में कपास को सफ़ेद सोना कहा जाता है पर विदर्भ की खेती और विदर्भ के किसान, आज औद्योगिक सभ्यता के प्रमुख निशाने पर हैं। जून 2005 से अब तक विदर्भ क्षेत्र में मौत को गले लगाने वाले किसानों की कुल संख्या 7860 हो चुकी है। सूखा, जल संकट, चारा, भोजन और बेरोजगारी का संकट विदर्भ में 15,460 गांवों तक पहुंच चुकी है। जून 2006 में केंद्र सरकार की ओर से घोषित किसानों के लिए राहत पैकेज भी किसानों के लिए लाभकारी नहीं रहे। महाराष्ट्र सरकार ने जिन गांवों को सूखाग्रस्त घोषित किया है, उनके लिए चलाए जा रहे राहत कार्य कागजों तक ही सीमित हैं। सूखा पडऩे से मवेशियों के लिए चारे का संकट गंभीर हो गया है। लोग अपने पशु कसाइयों के हाथों में बेच रहे हैं। चारा संकट के कारण मवेशी भी असमय काल के गाल में समा रहे हैं। विदर्भ के मामले में प्रधानमंत्री ने स्वयं हस्तक्षे कर किसानों को सिंचाई का पर्याप्त पानी, मुफ्त स्वास्थ्य सेवा, खाद्य सुरक्षा, ग्रामीण रोजगार आदि की उपलब्धता सुनिश्चित कराई जिससे किसान आत्महत्या रूक सके। बावजुद  समस्या जस की तस बनी हुई है। यहाँ की 60% खेती आज भी मौसम की मेहरबानी पर निर्भर है, हालांकि सरकार ( सिंचाई विभाग) हर खेत तक सिंचाई सुविधा उपलब्ध करने की बात तो करता है पर ये दावे कागजों तक ही सीमित रह जाते है। विदर्भ में आज भी 90 प्रतिशत खेती असिंचित है। असिंचित खेती को कोई प्रत्यक्ष सबसिडी नहीं है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में फसल मारी जाएगी और नकदी फसलों की खेती करने वाले किसानों पर कर्ज का बोझ बढ़ेगा। राज्य की दूसरी गंभीर समस्या है बिजली की कटौती। विदर्भ में स्थापित विद्युत ईकाइयों से उत्पादित बिजली से दूसरे राज्यों के शहर रौशन होते हैं। जबकि विदर्भ का किसान को सिंचाई के लिए भी बिजली नहीं मिल पाती है. अब बिजली और सिंचाई की समस्या एक दूसरे में गुंथ चुके हैं। किसान बीज, उर्वरक, कीटनाशक के लिए कर्ज़ लेता है। फसल अच्छी नहीं होने के कारण साहूकारों को कर्ज़ नहीं चुका पता है और आत्महत्या जैसा कठोर कदम उठता है।  बैंकों द्वारा ऋण बांटे जाने की प्रकीर्य इतनी जटिल है कि आज भी 60% से ज़्यादा किसान साहूकार की चंगुल से बच नहीं पाते है। कर्ज़ माफी की बात कर ले तो सरकार ने हाल ही में 1075 करोड़ का कर माफ़ी कर पूरे देश में अपने को किसानों का हितैषी बता रही है जब कि असलीयत कुछ और ही बयां करती है। सरकार ने 1075 करोड़ का कर्ज़ तो जरूर माफ कर दिया है. साथ ही साथ किसानों को 17000 करोड़ का बोनस देना बंद कर दिया यानि पैकेज दे कर पॉलिसी को बंद कर दिया गया। आमूमन विदर्भ में किसान के पास कम से कम 4 से 5 एकड़ ज़मीन है। इतनी ज़मीन होने के बावजूद भी उन पर प्रति व्यक्ति 50 से 60 हजार का कर्ज रहता है। पश्चिमी महाराष्ट्र में किसानों के पास खेत कम हैं पर उन पे प्रति व्यक्ति कर्ज 2 से 5 लाख तक होता है। सरकार की पूरी कर्ज़ माफी की प्रकीर्य बंकों से लिए गए ऋण के अनुसार होती है। इन सब का ज़्यादा लाभ पश्चिमी महाराष्ट्र के लोगों को लाभ पहुंचाने के उदेश्य से किया जाता रहा है. इन नीतियों के जरिये विदर्भ के किसानों के साथ सोतेला व्यवहार किया जाता रहा है। हर बार नीतियाँ ऐसी बनाए जाते हैं कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पश्चिमी महाराष्ट्र को फायदा मिले। नतीजतन किसान आत्महत्या की राह अपनाते हैं, खासकर उस स्थिति में जब प्रधानमंत्री द्वारा घोषित विशेष राहत पैकेज और सरकारी कर्जमाफी की योजना विदर्भ के किसानों को संकट से उबारने में असफल सिद्ध हो रही है। इन सब के साथ किसान के परिवारों को मुफ्त में बीमारियाँ, कुपोषण का सामना करना पड़ता है। संतरा, रबी, कपास, बाजरा, आदि फसलों के लिए मशहूर विदर्भ आज सरकारी उदासिनता, बाज़ार की नीतियों, मौसम की मार और साहूकार या बैंकों के दबाबों के कारण किसान आत्महत्या की राजधानी बन गया है। जबकि महाराष्ट्र की फलती-फूलती राजधानी और देश की वित्तीय राजधानी मुंबई को देखें जो विदर्भ से मात्र 700  कि.मी. की दूरी है पर दोनों के हालातों में ज़मीन आसमान का फर्क है। मीडिया के कुछ एक सस्थान को छोड़ हाल के वर्षों में मीडिया की जो भाषा और बंगीमा बनी है उसमें जन साधारण की अभिव्यक्ति को साधारण ही माना जाता है। आज खेती किसानी करने वाले लोग मीडिया की नज़र में नत्था से बड़ी कीमत नहीं रखते। उनके मरने की खबर उनके लिए बस एक सेलेबल न्यूज़ आइटम है जो जिसे अगले दिन राखी सावंत के ठुमके पर लुटाया जा सकता है।
हम जो कुछ पढ़ते-देखते-सुनते हैं वह सिर्फ एक आभासी चेहरा है असल राजनीति और उसका अर्थशास्त्र तो समाज के कुछ खास वर्गों के हाथों में जो तय करते हैं की रस्सी कब गले की टाई होगी और कब फांसी का फंदा।